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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 772
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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अ꣣या꣡ प꣢वस्व देव꣣यू꣡ रेभ꣢꣯न्प꣣वि꣢त्रं꣣ प꣡र्ये꣢षि वि꣣श्व꣡तः꣢ । म꣢धो꣣र्धा꣡रा꣢ असृक्षत ॥७७२॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣या꣢ । प꣣वस्व । देवयुः꣢ । रे꣡भ꣢꣯न् । प꣣वि꣡त्र꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । ए꣣षि । वि꣡श्व꣢तः । म꣡धोः꣢꣯ । धा꣡रा꣢꣯ । अ꣣सृक्षत ॥७७२॥


स्वर रहित मन्त्र

अया पवस्व देवयू रेभन्पवित्रं पर्येषि विश्वतः । मधोर्धारा असृक्षत ॥७७२॥


स्वर रहित पद पाठ

अया । पवस्व । देवयुः । रेभन् । पवित्रम् । परि । एषि । विश्वतः । मधोः । धारा । असृक्षत ॥७७२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 772
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

मन्त्र का ऋषि‘अग्नि चाक्षुष' है— जीवन में गतिशीलता से आगे बढ़नेवाला तथा उत्तम दृष्टिवाला । प्रभु इससे कहते हैं—

१. (अया) = अय् (गतौ) = गति के द्वारा तू (पवस्व) = अपने जीवन को पवित्र कर । क्रियाशीलता मनुष्य को उसी प्रकार पवित्र रखती है जैसे गति जल को । २. (देवयुः) - तू दिव्य-गुणों को अपने साथ जोड़ने की कामनावाला हो । बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों को अपने साथ संपृक्त करता चल। ३. (रेभन् ) = तू सदा प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करनेवाला बन । ४. (विश्वतः) = सब ओर से, जहाँ से भी सम्भव हो, तू (पवित्रम्) = ज्ञान को [नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते] (पर्येषि) = प्राप्त करनेवाला हो । ५. (मधोर्धाराः असृक्षत) = ज्ञान प्राप्त करके मधु की धाराएँ – माधुर्यभरी वाणियाँ तुझसे सृजी जाती हैं, अर्थात् तू बड़ी ही मधुरवाणी का प्रयोग करता है ।

भावार्थ -

हमारा जीवन गतिशीलता, दिव्य गुणों, स्तुति, ज्ञान तथा माधुर्य से युक्त होकर हमें मन्त्र का ऋषि ‘अग्नि चाक्षुष' कहलाने का अधिकारी बनाए ।

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