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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 786
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
आ꣡ प꣢वस्व सु꣣वी꣢र्यं꣣ म꣡न्द꣢मानः स्वायुध । इ꣣हो꣡ ष्वि꣢न्द꣣वा꣡ ग꣢हि ॥७८६॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । प꣣वस्व । सुवी꣡र्य꣢म् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् । म꣡न्द꣢꣯मानः । स्वा꣣युध । सु । आयुध । इ꣢ह । उ꣣ । सु꣢ । इ꣣न्दो । आ꣢ । ग꣣हि ॥७८६॥
स्वर रहित मन्त्र
आ पवस्व सुवीर्यं मन्दमानः स्वायुध । इहो ष्विन्दवा गहि ॥७८६॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । पवस्व । सुवीर्यम् । सु । वीर्यम् । मन्दमानः । स्वायुध । सु । आयुध । इह । उ । सु । इन्दो । आ । गहि ॥७८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 786
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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विषय - विजयी बनकर
पदार्थ -
यदि मनुष्य कर्मों में लगा रहे तो उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग सोम का सेचन होकर उसके सब अङ्ग बड़े सुन्दर व स्वस्थ बनते हैं। प्रभु ने जीव को इस संसार-संग्राम को लड़ने के लिए 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' रूप अस्त्र दिये हैं। सोम की रक्षा से ये सारे ' 'आयुध' बड़े ठीक बने रहते हैं। प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (स्वायुध) = उत्तम आयुधोंवाले! (मन्दमान:) = [मोदमान:] शक्ति के उल्लास में हर्ष का अनुभव करता हुआ तू अथवा [मन्दते: ज्वलतिकर्मा – नि० १.१६.६] शक्ति से प्रज्वलित व प्रकाशमान् [glowing] होता हुआ तू (सुवीर्यम् आपवस्व) = उत्तम बल को प्राप्त करनेवाला हो ।
(इन्दो) = सोम की रक्षा से शक्तिसम्पन्न हुए इन्दो ! तू इह यहाँ — इसी जन्म में उ- निश्चय से सु (आगाहि) = उत्तमता से मुझे प्राप्त करनेवाला हो । सोम की रक्षा से सबल हुआ जीव ही प्रभु को पाने का अधिकारी बनता है । इस सोम की रक्षा से इसके सभी आयुध [इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि] ठीक बने रहते हैं और इनके द्वारा संसार-संग्राम में विजयी बनकर यह प्रभु के समीप पहुँचता है। हार जाने से प्रभु नहीं मिलते। विजय ही सदाचार है, पराजय अनाचार । पराजय तो हमारी निर्बलता की सूचक है। निर्बल ने प्रभु को थोड़े ही पाना है ? (नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः) । पराजित लज्जा के कारण पिता के समीप आएगा ही कैसे ?
भावार्थ -
सोम- पान [वीर्य - रक्षा] से उज्ज्वल बनकर हम संसार-संग्राम के विजेता बनें और प्रभु के समीप जाने के लिए सक्षम हों।