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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 792
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
अ꣡ग्ने꣢ दे꣣वा꣢ꣳ इ꣣हा꣡ व꣢ह जज्ञा꣣नो꣢ वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषे । अ꣢सि꣣ हो꣡ता꣢ न꣣ ई꣡ड्यः꣢ ॥७९२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । दे꣣वा꣢न् । इ꣣ह꣢ । आ । व꣣ह । जज्ञानः꣢ । वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषे । वृ꣣क्त꣢ । ब꣡र्हिषे । अ꣡सि꣢꣯ । हो꣡ता꣢꣯ । नः꣣ । ई꣡ड्यः꣢꣯ ॥७९२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने देवाꣳ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईड्यः ॥७९२॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । देवान् । इह । आ । वह । जज्ञानः । वृक्तबर्हिषे । वृक्त । बर्हिषे । असि । होता । नः । ईड्यः ॥७९२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 792
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - देव देवों के साथ
पदार्थ -
हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (इह) = इस मानवजीवन में (वृक्तबर्हिषे) = जिस भी व्यक्ति ने काम, क्रोध, लोभ आदि वासनाओं का वर्जन किया है और इस प्रकार हृदय को (बर्हि) = उत्पाटित वासनाओंवाला बनाया है, उस पुरुष के लिए (जज्ञान:) = आविर्भूत होते हुए आप (देवान् आवह) = दिव्य गुणों को प्राप्त कराइए । वेद में (‘देवो देवेभिरागमत्') = 'वह देव देवों के साथ आता है' इन शब्दों में यह स्पष्ट कहा गया है कि हम जितना- जितना प्रभु के समीप पहुँचते हैं, उतना उतना ही दिव्य गुणों के आधार बनते हैं—अथवा ‘दिव्य-गुणों के साथ वह देव आता है', अर्थात् जितना- जितना हम दिव्य गुणों को अपनाते चलते हैं, उतना-उतना प्रभु के समीप पहुँचते जाते हैं । 'दिव्य गुणों की प्राप्ति' व 'प्रभु का सान्निध्य' ये दोनों बातें साथ-साथ चलती हैं— ये एक-दूसरे के लिए सहायक हैं । यहाँ प्रस्तुत मन्त्र के शब्दों के अनुसार जितना- जितना हम 'वृक्तबर्हि' होते हैं, उतना उतना प्रभु का प्रकाश देखते हैं [जज्ञान:] और हममें दिव्य गुणों का विकास होता है [देवान् इह आवह ] ।
हे प्रभो ! होता असि- हमारे होता तो आप ही हैं – [हु-दान] हमें सब दिव्य गुणों के प्राप्त करानेवाले आप ही हैं। आपको ही हमारे हृदयों में आविर्भूत होकर उसे दिव्य गुणों से अलंकृत करना है। आप ही नः ईड्यः = हमारे स्तुत्य हो । हमें आपको ही अपना पूज्य बनाकर परस्पर मौलिक एकता की भावना को दृढ़ रखना है, जिससे कि राग-द्वेषादि मल हममें उत्पन्न ही न हों ।
भावार्थ -
हे प्रभो ! हम अपने हृदयों को शुद्ध करने में लगे रहें, जिससे वहाँ आपका प्रकाश हो और दिव्य गुणों का आगमन हो ।
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