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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 812
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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श꣣ता꣡नी꣢केव꣣ प्र꣡ जि꣢गाति धृष्णु꣣या꣡ हन्ति꣢꣯ वृ꣣त्रा꣡णि꣢ दा꣣शु꣡षे꣢ । गि꣣रे꣡रि꣢व꣣ प्र꣡ रसा꣢꣯ अस्य पिन्विरे꣣ द꣡त्रा꣢णि पुरु꣣भो꣡ज꣢सः ॥८१२॥

स्वर सहित पद पाठ

श꣣ता꣡नी꣢का । श꣣त꣢ । अ꣣नीका । इव । प्र꣢ । जि꣣गाति । धृष्णुया꣢ । ह꣡न्ति꣢꣯ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । दा꣣शु꣡षे꣢ । गि꣣रेः꣢ । इ꣣व । प्र꣢ । र꣡साः꣢꣯ । अ꣣स्य । पिन्विरे । द꣡त्रा꣢꣯णि । पु꣣रुभो꣡ज꣢सः । पु꣣रु । भो꣡ज꣢꣯सः ॥८१२॥


स्वर रहित मन्त्र

शतानीकेव प्र जिगाति धृष्णुया हन्ति वृत्राणि दाशुषे । गिरेरिव प्र रसा अस्य पिन्विरे दत्राणि पुरुभोजसः ॥८१२॥


स्वर रहित पद पाठ

शतानीका । शत । अनीका । इव । प्र । जिगाति । धृष्णुया । हन्ति । वृत्राणि । दाशुषे । गिरेः । इव । प्र । रसाः । अस्य । पिन्विरे । दत्राणि । पुरुभोजसः । पुरु । भोजसः ॥८१२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 812
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

(धृष्णुयाः) = कामादि शत्रुओं का धर्षण करनेवाला परमात्मा [धृष्णु+या] (शत+अनीका इव) = सौ सेनाओं के समान (प्रजिगाति) = उपासक को प्राप्त होता है, और (दाशुषे) = आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए (वृत्राणि हन्ति) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को नष्ट करता है। जब मनुष्य कामादि का धर्षण करने के लिए प्रवृत्त होता है, उस समय प्रभु के सान्निध्य से उसे ऐसी शक्ति प्राप्त होती है, जो सौ सेनाओं के तुल्य होती है और प्रभु के प्रति आत्मसमर्पण करनेवाले की वासनाओं का विनाश तो प्रभु ही कर देते हैं ।

इस वासना- विनाश के बाद (पुरुभोजसः) = पालक व पूरक भोज्य द्रव्यों को देनेवाले प्रभु के (दात्राणि) = सब दान (अस्य) = इस उपासक का (पिन्विरे) = प्रीणन करते हैं, इसी प्रकार (इव) = जैसे (गिरे:) = मेघ के (प्ररसाः) = उत्कृष्ट रस - पर्वतों पर उत्पन्न फलों के रस मनुष्य को तृप्त करते हैं । वस्तुतः खानेपीने की वस्तुओं का आनन्द भी वासना- विनाश के बाद आता है। उससे पहले तो ये खाने-पीने की वस्तुएँ हमें ही खा-पी जाती हैं, अत: मन्त्र के पूर्वार्ध में वासना-विनाश का उल्लेख है और उत्तरार्ध में उस पुरुभोजस् प्रभु के दिव्य अन्नों द्वारा प्रीणन का प्रसङ्ग है। यदि वासनाओं को जीतकर हमने इन अन्नों का सेवन किया तो हम कण-कण करके उत्तमता का संग्रह करनेवाले 'प्रस्कण्व' होंगे। 

भावार्थ -

हम प्रभु की शरण में जाकर वासनाओं का विनाश करें और प्रभु के दिये भोजनों से प्रीणन का अनुभव करें ।

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