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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 812
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    41

    श꣣ता꣡नी꣢केव꣣ प्र꣡ जि꣢गाति धृष्णु꣣या꣡ हन्ति꣢꣯ वृ꣣त्रा꣡णि꣢ दा꣣शु꣡षे꣢ । गि꣣रे꣡रि꣢व꣣ प्र꣡ रसा꣢꣯ अस्य पिन्विरे꣣ द꣡त्रा꣢णि पुरु꣣भो꣡ज꣢सः ॥८१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श꣣ता꣡नी꣢का । श꣣त꣢ । अ꣣नीका । इव । प्र꣢ । जि꣣गाति । धृष्णुया꣢ । ह꣡न्ति꣢꣯ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । दा꣣शु꣡षे꣢ । गि꣣रेः꣢ । इ꣣व । प्र꣢ । र꣡साः꣢꣯ । अ꣣स्य । पिन्विरे । द꣡त्रा꣢꣯णि । पु꣣रुभो꣡ज꣢सः । पु꣣रु । भो꣡ज꣢꣯सः ॥८१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतानीकेव प्र जिगाति धृष्णुया हन्ति वृत्राणि दाशुषे । गिरेरिव प्र रसा अस्य पिन्विरे दत्राणि पुरुभोजसः ॥८१२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शतानीका । शत । अनीका । इव । प्र । जिगाति । धृष्णुया । हन्ति । वृत्राणि । दाशुषे । गिरेः । इव । प्र । रसाः । अस्य । पिन्विरे । दत्राणि । पुरुभोजसः । पुरु । भोजसः ॥८१२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 812
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा और आचार्य दोनों का वर्णन है।

    पदार्थ

    यह इन्द्र अर्थात् परमैश्वर्ययुक्त परमात्मा वा विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्य (दाशुषे) आत्मसमपर्ण करनेवाले उपासक वा शिष्य के हितार्थ (धृष्णुया) अपने धर्षक गुण से (शतानीका इव) सौ शत्रुसेनाओं के तुल्य (वृत्राणि) उपासक या शिष्य के दोषों पर (प्र जिगाति) आक्रमण करता है और (हन्ति) उन्हें नष्ट कर देता है। (पुरुभोजसः) बहुत पालन करनेवाले (अस्य) इस परमात्मा वा आचार्य के (दत्राणि) दान (पिन्विरे) उपासक वा शिष्य के प्रति प्रवाहित होते हैं, (गिरेः इव रसाः) जैसे पर्वत के जल प्रवाहित हुआ करते हैं ॥२॥ इस मन्त्र में दो उपमाओं की संसृष्टि है ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा वा आचार्य के प्रति समर्पणभाव में पहुँचकर उनकी सहायता से दोषों को दूर कर आनन्द-रस और विद्या-रस प्राप्त करने चाहिएँ ॥२॥

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    पदार्थ

    (धृष्णुया) धर्षणशील परमात्मा (दाशुषे) स्वात्मसमर्पण कर्त्ता उपासक के “चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि” [अष्टा॰ २.३.६२] इत्यत्र ‘षष्ठ्यर्थे चतुर्थीत्यपि वक्तव्यम्’ (वृत्राणि) पापों को “पाप्मा वै वृत्रः” [श॰ ११.१.५.७] (हन्ति) नष्ट कर देता है (शतानीका-इव प्रजिगाति) जैसे सैकड़ों सैनिक बलों को सेनानायक पूर्णरूप से जीत लेता है तथा (अस्य पुरुभोजसः) इस बहुत पालनकर्ता परमात्मा के (दत्राणि) सुखद भोग्य दान (गिरेः-रसाः-इव प्रपिन्वरे) पर्वत के नदी सोते जैसे “रसा नदी” [निरु॰ ११.२५] भूमि को सींचते हैं, तृप्त करते हैं। ऐसे उपासक को तृप्त करते हैं।

    भावार्थ

    आत्मसमर्पणकर्ता उपासक के पापों का नाश परमात्मा ऐसे कर देता है, जैसे सेनानायक शत्रुसैनिकबलों को जीत लेता नष्ट कर देता है। पुनः बहुत पालनकर्ता विविध सुखदान उपासक को ऐसे तृप्त करते हैं, जैसे पर्वत के नदी सोते भूमि को सींचते तृप्त करते हैं॥२॥

    विशेष

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    विषय

    वासनाविजय और प्रीति का अनुभव

    पदार्थ

    (धृष्णुयाः) = कामादि शत्रुओं का धर्षण करनेवाला परमात्मा [धृष्णु+या] (शत+अनीका इव) = सौ सेनाओं के समान (प्रजिगाति) = उपासक को प्राप्त होता है, और (दाशुषे) = आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए (वृत्राणि हन्ति) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को नष्ट करता है। जब मनुष्य कामादि का धर्षण करने के लिए प्रवृत्त होता है, उस समय प्रभु के सान्निध्य से उसे ऐसी शक्ति प्राप्त होती है, जो सौ सेनाओं के तुल्य होती है और प्रभु के प्रति आत्मसमर्पण करनेवाले की वासनाओं का विनाश तो प्रभु ही कर देते हैं ।

    इस वासना- विनाश के बाद (पुरुभोजसः) = पालक व पूरक भोज्य द्रव्यों को देनेवाले प्रभु के (दात्राणि) = सब दान (अस्य) = इस उपासक का (पिन्विरे) = प्रीणन करते हैं, इसी प्रकार (इव) = जैसे (गिरे:) = मेघ के (प्ररसाः) = उत्कृष्ट रस - पर्वतों पर उत्पन्न फलों के रस मनुष्य को तृप्त करते हैं । वस्तुतः खानेपीने की वस्तुओं का आनन्द भी वासना- विनाश के बाद आता है। उससे पहले तो ये खाने-पीने की वस्तुएँ हमें ही खा-पी जाती हैं, अत: मन्त्र के पूर्वार्ध में वासना-विनाश का उल्लेख है और उत्तरार्ध में उस पुरुभोजस् प्रभु के दिव्य अन्नों द्वारा प्रीणन का प्रसङ्ग है। यदि वासनाओं को जीतकर हमने इन अन्नों का सेवन किया तो हम कण-कण करके उत्तमता का संग्रह करनेवाले 'प्रस्कण्व' होंगे। 

    भावार्थ

    हम प्रभु की शरण में जाकर वासनाओं का विनाश करें और प्रभु के दिये भोजनों से प्रीणन का अनुभव करें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (धृष्णुया) अपनी इन्द्रियों पर और चित्त के शत्रु काम, क्रोधादि को वश करने वाला पुरुष या (शतानीक इव) सैकड़ों सेनाओं के पति विजिगीषु पुरुष के समान (प्रजिगाति) उत्तम प्रकार से आगे बढ़ कर विजयकर लेता है। हे (दाशुषे) आत्म समर्पण करने हार के लिये (वृत्राणि) उसको घेर लेने वाले पाप विकल्पों को भी वह प्रभु (हन्ति) विनाश करता हैं (अस्य) इस (पुरुभोजसः) इन्दियों के भोग भोगने हार आत्मा के (दत्राणि) त्याग किये हुए विषय ही (गिरेः इव वृत्राणि) मेघ से बरसे जलों के समान, या पर्वत से झरते झरनों के समान आनन्दों को बहाने वाले आनन्द घन, ज्ञानोपदेशक परमेश्वर से बहते (रसा) आनन्दरस ही उसको (प्र पिन्विरे) प्रति अधिक तृप्त और पूर्ण करते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानमाचार्यं च वर्णयति।

    पदार्थः

    एष इन्द्रः परमैश्वर्यवान् परमात्मा विद्यैश्वर्यवान् आचार्यो वा (दाशुषे) आत्मसमर्पकस्य उपासकस्य शिष्यस्य वा हितार्थम् (धृष्णुया) स्वकीयेन धर्षकगुणेन (शतानीका इव) शतानीकानि शतसंख्यकानि शत्रुसैन्यानि इव (वृत्राणि) उपासकस्य शिष्यस्य वा छिद्राणि (प्र जिगाति) प्र गच्छति आक्रामति इति यावत्। [जिगातिः गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (हन्ति) हिनस्ति च। (पुरुभोजसः) बहुपालकस्य (अस्य) परमात्मनः आचार्यस्य वा (दत्राणि) दानानि। (पिन्विरे) उपासकं शिष्यं वा प्रति प्रवहन्ति, (गिरेः इव रसाः) पर्वतस्य यथा जलानि प्रवहन्ति ॥२॥ अत्र द्वयोरुपमयोः संसृष्टिः ॥२॥

    भावार्थः

    परमात्मानमाचार्यं च प्रति समर्पणभावेन गत्वा, तत्साहाय्येन दोषान् दूरीकृत्यानन्दरसा विद्यारसाश्च प्राप्तव्याः ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।४९।२, अथ० २०।५१।२।

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Just as a self-controlled hero overcomes and destroys the forces of the enemy, so does God subdue and remove the sin of a self-sacrificing soul. As from a mountain flow the water-brooks, thus flow His gifts Who feedeth many a one.

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    Meaning

    Like the commander of a hundred armies, with his power and force, Indra rushes forward to fight and win, and he destroys the demons of darkness and want for the charitable giver. The gifts of this universal giver of food and sustenance feed and support humanity like streams flowing down from the mountains. (Rg. 8-49-2)

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    Translation

    As a powerful man overcomes a hundred enemies, so does God slay the sins in the form of lust, anger, jealousy and pride etc of a true devotee who surrenders himself to Him. And as from a mountain or cloud flow the water brooks, thus flow His gifts Who feedeth many.

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    Translation

    He, equipped with his punitive forces, gets full control over hundreds of enemies. He destroys the enemies of His worshippers who liberally give to worthy and needy. He (our Lord) is a giver of ample rewards that swell like a stream flowing in as waters collecting from the mountains.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (धृष्णुया) ધર્ષણશીલ-પરમાત્મા (दाशुषे) સ્વાત્મ સમર્પણ કર્તા ઉપાસકના (वृत्राणि) પાપોને (हन्ति) નષ્ટ કરી દે છે (शतानीका इव प्रजिगाति) જેમ સેંકડો સૈનિકોના બળોને સેનાનાયક પૂર્ણરૂપથી જીતી લે છે. તથા (अस्य पुरुभोजसः) એવા અત્યંત પાલનકર્તા પરમાત્માનું (दत्राणि) સુખદ ભોગ્ય દાન (गिरेः रसाः इव प्रपिन्वरे) જેમ પર્વતમાંથી નદી વહીને ભૂમિને સિંચે છે, તૃપ્ત કરે છે, તેમ ઉપાસકને તૃપ્ત કરે છે. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જેમ સેનાનાયક શત્રુ સૈનિક બળોને જીતીને નષ્ટ કરી દે છે, તેમ આત્મસમર્પણકર્તા ઉપાસકનાં પાપોનો નાશ પરમાત્મા કરી દે છે. પુનઃ જેમ પર્વતમાંથી વહીને નદી ભૂમિને સિંચે છે, તેમ અત્યંત પાલનકર્તા પરમાત્મા વિવિધ સુખ દાનથી ઉપાસકને તૃપ્ત કરે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म व आचार्य यांना समर्पण भावाने शरण जावे व त्यांच्या साह्याने दोष दूर करून आनंदरस व विद्या-रस प्राप्त केला पाहिजे. ॥२॥

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