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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 861
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
ए꣣वा꣡ नः꣢ सोम परिषि꣣च्य꣡मा꣢न꣣ आ꣡ प꣢वस्व पू꣣य꣡मा꣢नः स्व꣣स्ति꣢ । इ꣢न्द्र꣣मा꣡ वि꣢श बृह꣣ता꣡ मदे꣢꣯न व꣣र्ध꣢या꣣ वा꣡चं꣢ ज꣣न꣢या꣣ पु꣡र꣢न्धिम् ॥८६१॥
स्वर सहित पद पाठएव꣢ । नः꣣ । सोम । परिषिच्य꣡मा꣢नः । प꣣रि । सिच्य꣡मा꣢नः । आ । प꣣वस्व । पूय꣡मा꣢नः । स्व꣣स्ति꣢ । सु꣣ । अस्ति꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । आ । वि꣣श । बृहता꣢ । म꣡दे꣢꣯न । व꣣र्ध꣡य꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । ज꣣न꣡य꣢ । पु꣡र꣢꣯न्धिम् । पु꣡र꣢꣯म् । धि꣣म् ॥८६१॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा नः सोम परिषिच्यमान आ पवस्व पूयमानः स्वस्ति । इन्द्रमा विश बृहता मदेन वर्धया वाचं जनया पुरन्धिम् ॥८६१॥
स्वर रहित पद पाठ
एव । नः । सोम । परिषिच्यमानः । परि । सिच्यमानः । आ । पवस्व । पूयमानः । स्वस्ति । सु । अस्ति । इन्द्रम् । आ । विश । बृहता । मदेन । वर्धय । वाचम् । जनय । पुरन्धिम् । पुरम् । धिम् ॥८६१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 861
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - सोम का आसेचन
पदार्थ -
गत मन्त्र में प्रभु को हृदय में देखने का संकेत था । स्तुति आदि के द्वारा वह हृदय देश में (सुतः) = आविर्भूत होता है। इन साधनों से हम अपने हृदय में प्रभु के प्रकाश को अधिकाधिक देखनेवाले बनते हैं। हमारा हृदय प्रभु-भावना से सिक्त-सा हो जाता है। प्रस्तुत मन्त्र कहता है कि (एवा) = इस प्रकार, अर्थात् गत मन्त्र में उल्लिखित साधनों के द्वारा हे (सोम) = परमात्मन् ! (परिषिच्यमानः) = हमारे हृदयों में सिक्त होते हुए आप (नः) = हमें (आपवस्व) = प्राप्त होओ तथा (पूयमानः) = हमारे जीवनों को पवित्र करते हुए आप (स्वस्ति) = हमारा कल्याण सिद्ध करो ।
हे परमात्मन् ! आप (इन्द्रम्) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता मुझ जीव में (बृहता मदेन) = वृद्धि के कारणभूत उल्लास के साथ (आविश) = प्रविष्ट हों । जो भी व्यक्ति जितेन्द्रिय बनता है उसी के हृदयाकाश में प्रभुरूप सूर्य चमकते हैं और उस उपासक का जीवन एक विशेष उल्लास से युक्त हो जाता है।
हे प्रभो ! आप हृदयस्थरूपेण हमारे अन्दर (वाचम्) = इस वेदवाणी को (वर्धय) = बढ़ाइए | हम वेदवाणी का ज्ञान प्राप्त करें और इस प्रकार आप मुझे (पुरन्धिम्) = बहुत बुद्धिवाला अथवा पालक व पूरक बुद्धिवाला (जनय) = बनाइए । मुझमें शनैः शनैः बुद्धि का विकास हो और मैं ' पुरन्धि' = बहु-बुद्धि बन जाऊँ। मैं अपने बुद्धिजन्य ज्ञान को लोक के पूरण व पालन में साधन बनाऊँ । मेरा ज्ञान सूपयुक्त होकर लोकमङ्गल के लिए हो । ज्ञान के द्वारा वासनाओं व दुःखों को सुदूर विनष्ट करनेवाला 'पराशर' बनूँ तथा वासना-विनाश से शक्ति का पुञ्ज शाक्त्य होऊँ । 'पराशर शाक्त्य' ही इस मन्त्र का ऋषि है।
भावार्थ -
प्रभु-भावना का आसेचन मुझे पवित्र, उल्लासमय, वेदवाणी के ज्ञानवाला तथा पुरन्धि बनाता है।
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