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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 861
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
23
ए꣣वा꣡ नः꣢ सोम परिषि꣣च्य꣡मा꣢न꣣ आ꣡ प꣢वस्व पू꣣य꣡मा꣢नः स्व꣣स्ति꣢ । इ꣢न्द्र꣣मा꣡ वि꣢श बृह꣣ता꣡ मदे꣢꣯न व꣣र्ध꣢या꣣ वा꣡चं꣢ ज꣣न꣢या꣣ पु꣡र꣢न्धिम् ॥८६१॥
स्वर सहित पद पाठएव꣢ । नः꣣ । सोम । परिषिच्य꣡मा꣢नः । प꣣रि । सिच्य꣡मा꣢नः । आ । प꣣वस्व । पूय꣡मा꣢नः । स्व꣣स्ति꣢ । सु꣣ । अस्ति꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । आ । वि꣣श । बृहता꣢ । म꣡दे꣢꣯न । व꣣र्ध꣡य꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । ज꣣न꣡य꣢ । पु꣡र꣢꣯न्धिम् । पु꣡र꣢꣯म् । धि꣣म् ॥८६१॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा नः सोम परिषिच्यमान आ पवस्व पूयमानः स्वस्ति । इन्द्रमा विश बृहता मदेन वर्धया वाचं जनया पुरन्धिम् ॥८६१॥
स्वर रहित पद पाठ
एव । नः । सोम । परिषिच्यमानः । परि । सिच्यमानः । आ । पवस्व । पूयमानः । स्वस्ति । सु । अस्ति । इन्द्रम् । आ । विश । बृहता । मदेन । वर्धय । वाचम् । जनय । पुरन्धिम् । पुरम् । धिम् ॥८६१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 861
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमकवि परमात्मा के काव्यरस का वर्णन है।
पदार्थ
हे (सोम) परमकवि परमात्मा के काव्य से उत्पन्न काव्यानन्दरस ! (एव) सचमुच (परिषिच्यमानः) चारों ओर सींचा जाता हुआ, (पूयमानः) हमारे प्रति प्रेरित होता हुआ, तू (नः) हमारे लिए (स्वस्ति) कल्याण को (आ पवस्व) ला। (बृहता) महान् (मदेन) तृप्ति के साथ (इन्द्रम्) जीवात्मा में (आ विश) प्रवेश कर, (वाचम्) स्तुतिवाणी को (वर्धय) बढ़ा और स्तोता को (पुरन्धिम्) बहुत बुद्धिमान् वा बहुत कर्मवान् (जनय) कर ॥३॥ यहाँ अनेक क्रियाओं का एक कर्त्ता कारक से योग होने के कारण दीपक अलङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
हृदय में सींचा जाता हुआ महाकवि परमात्मा का काव्यानन्दरस सहृदय के हृदय को चमत्कृत करके उसे प्रभुगीतों का गायक, बहुत मेधावी, बहुत कर्मनिष्ठ, उत्साहवान्, सरस और दयालु बना देता है ॥३॥ इस खण्ड में गुरुजन, स्नातक, महाकविकर्म, परमकवि परमात्मा एवं उसके काव्यरस का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्वखण्ड के साथ सङ्गति है ॥ चतुर्थ अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (परिषिच्यमानः) सर्वभाव से धारित निदिध्यासन में आया हुआ (पूयमानः) तथा साक्षात् हुआ (नः स्वस्ति) हमारी सु-अस्ति—स्वरूपापत्ति—मुक्ति को (एव) अवश्य (आपवस्व) प्राप्त करा “पवते गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] (बृहता मदेन) महान् हर्षक स्वरूप या हर्षनिमित्त से (इन्द्रम्-आविश) उपासक आत्मा को आविष्ट हो उसके अन्दर आवेश कर (वाचं वर्धय) उसकी स्तुतिवाणी को समृद्ध कर—सफल कर—करता है (पुरन्धिं जनय) उपासक आत्मा को बहुत धी—बुद्धि वाला सम्पन्न कर दे “पुरन्धिर्बहुधीः....” [निरु॰ ६.१३]।
भावार्थ
मेरे प्यारे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू सर्वभाव से धारित—निदिध्यासन में लाया उपासना द्वारा ध्याया तथा साक्षात् किया हुआ मेरे स्वरूपप्राप्ति—मुक्ति को अवश्य प्राप्त करा—कराता है, मुझ उपासक आत्मा को महान् अपने हर्षप्रद स्वरूप में या हर्षनिमित्त बन प्राप्त हो—होता है मेरी स्तुतिवाणी को सफल कर—करता है मुझे बहुत बुद्धिमान् कुशल बुद्धिमान् बना—बनाता है॥३॥
विशेष
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विषय
सोम का आसेचन
पदार्थ
गत मन्त्र में प्रभु को हृदय में देखने का संकेत था । स्तुति आदि के द्वारा वह हृदय देश में (सुतः) = आविर्भूत होता है। इन साधनों से हम अपने हृदय में प्रभु के प्रकाश को अधिकाधिक देखनेवाले बनते हैं। हमारा हृदय प्रभु-भावना से सिक्त-सा हो जाता है। प्रस्तुत मन्त्र कहता है कि (एवा) = इस प्रकार, अर्थात् गत मन्त्र में उल्लिखित साधनों के द्वारा हे (सोम) = परमात्मन् ! (परिषिच्यमानः) = हमारे हृदयों में सिक्त होते हुए आप (नः) = हमें (आपवस्व) = प्राप्त होओ तथा (पूयमानः) = हमारे जीवनों को पवित्र करते हुए आप (स्वस्ति) = हमारा कल्याण सिद्ध करो ।
हे परमात्मन् ! आप (इन्द्रम्) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता मुझ जीव में (बृहता मदेन) = वृद्धि के कारणभूत उल्लास के साथ (आविश) = प्रविष्ट हों । जो भी व्यक्ति जितेन्द्रिय बनता है उसी के हृदयाकाश में प्रभुरूप सूर्य चमकते हैं और उस उपासक का जीवन एक विशेष उल्लास से युक्त हो जाता है।
हे प्रभो ! आप हृदयस्थरूपेण हमारे अन्दर (वाचम्) = इस वेदवाणी को (वर्धय) = बढ़ाइए | हम वेदवाणी का ज्ञान प्राप्त करें और इस प्रकार आप मुझे (पुरन्धिम्) = बहुत बुद्धिवाला अथवा पालक व पूरक बुद्धिवाला (जनय) = बनाइए । मुझमें शनैः शनैः बुद्धि का विकास हो और मैं ' पुरन्धि' = बहु-बुद्धि बन जाऊँ। मैं अपने बुद्धिजन्य ज्ञान को लोक के पूरण व पालन में साधन बनाऊँ । मेरा ज्ञान सूपयुक्त होकर लोकमङ्गल के लिए हो । ज्ञान के द्वारा वासनाओं व दुःखों को सुदूर विनष्ट करनेवाला 'पराशर' बनूँ तथा वासना-विनाश से शक्ति का पुञ्ज शाक्त्य होऊँ । 'पराशर शाक्त्य' ही इस मन्त्र का ऋषि है।
भावार्थ
प्रभु-भावना का आसेचन मुझे पवित्र, उल्लासमय, वेदवाणी के ज्ञानवाला तथा पुरन्धि बनाता है।
विषय
missing
भावार्थ
हे (सोम) रसस्वरूप ! (परिसिच्यमानः) बार बार निदिध्यासन द्वारा साक्षात् किया गया, (पूयमानः) विशुद्धरूप (स्वस्ति) कल्याणकारी होकर (नः आपवस्व) हमारे प्रति प्रकट हो। और (बृहता) बड़े भारी (मदेन) आनन्दरस से (इन्द्रम्) आत्मा को (आविश) प्राप्त कर और (वाचं) वाक्शक्ति को (वर्धय) बढ़ा। और (पुरन्धिम्) देह रूप पुर को धारण करने हारी चितिशक्ति या बुद्धि को (जनय) प्रकट कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
missing
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमकवेः परमात्मनः काव्यरसं वर्णयन्नाह।
पदार्थः
हे (सोम) परमकवेः परमात्मनः काव्याज्जनित काव्यानन्दरस ! (एव) सत्यम् (परिषिच्यमानः) परिक्षार्यमाणः, (पूयमानः) अस्मान् प्रति प्रेर्यमाणः त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्ति) भद्रम् (आ पवस्व) आनय। (बृहता) महता (मदेन) तृप्तियोगेन (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (आ विश) प्र विश, (वाचम्) स्तुतिवाचम् (वर्धय) वृद्धिं गमय, स्तोतारं च (पुरन्धिम्) बहुधियं बहुकर्माणं वा (जनय) कुरु। [पुरन्धिर्बहुधीः। निरु० ६।१३।५१] ॥३॥ अत्रानेकक्रियाणामेकेन कर्तृकारकेण योगाद् दीपकालङ्कारः ॥३॥
भावार्थः
हृदये परिषिच्यमानो महाकवेः परमात्मनः काव्यानन्दरसः सहृदयस्य हृदयं चमत्कृत्य तं प्रभुगीतानां गायकं बहुप्रज्ञं बहुक्रियमुत्साहवन्तं सरसं कारुणिकं च कुरुते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे गुरूणां, स्नातकस्य, महाकविकर्मणः, परमकवेः परमात्मनस्तत्काव्यरसस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९७।३६, ‘मदेन’ इत्यत्र ‘रवे॑ण’ इति भेदः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, realised through profound meditation, Immaculate, Welfare. Wisher manifest Thyself unto us. Come to the soul with great joy and rapture, develop our power of speech, let our wisdom grow !
Meaning
Thus, O Soma, served, adored and celebrated with your power and purity, let your presence radiate and purify us for our good and all round well being. Come and settle in the soul with the ecstasy of divinity. Generate and exalt the awareness and speech of vision and celebration communicative of high divine realisation. (Rg. 9-97-36)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (परिषिच्यमानः) સર્વભાવથી ધારિત નિદિધ્યાસનમાં આવીને (पूयमानः) તથા સાક્ષાત્ થઈને (नः स्वस्ति) અમારી સુ-અસ્તિ-સ્વરૂપાપત્તિ-મુક્તિને (एव) અવશ્ય (आपवस्व) પ્રાપ્ત કરાવ (बृहता मदेन) મહાન હર્ષક સ્વરૂપ વા હર્ષ નિમિત્તથી (इन्द्रम् आविश) ઉપાસક આત્માને આવિષ્ટ થા તેની અંદર આવેશ કર (वाचं वर्धय) તેની સ્તુતિ વાણીને સમૃદ્ધ કર-સફળ કરકરે છે. (पुरन्धिं जनय) ઉપાસક આત્માને બહુજ ધી = બુદ્ધિવાળો સંપન્ન કરી દે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મારા પ્યારા શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું સર્વભાવ ધારિત-નિદિધ્યાસનમાં લાવેલ ઉપાસના દ્વારા ધ્યાયા તથા સાક્ષાત્ કરેલા મારી સ્વરૂપ પ્રાપ્તિ-મુક્તિને અવશ્ય પ્રાપ્ત કરાવ - કરાવે છે, મારા ઉપાસક આત્માને મહાન તારા હર્ષપ્રદ સ્વરૂપમાં અથવા હર્ષ માટે બનીને પ્રાપ્ત થા-થાય છે, મારી સ્તુતિ વાણીને સફળ કર-કરે છે, મને બહુજ બુદ્ધિમાન કુશળ બુદ્ધિમાન બનાવ-બનાવે છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
महाकवी परमेश्वराचा काव्यानंदरस, हृदयपूर्वक सिंचित केलेला असल्यामुळे सहृदयाच्या हृदयाला चमत्कृत करून त्याला प्रभुगीतांचा गायक, अत्यंत मेधावी, अत्यंत कर्मनिष्ठ, उत्साही व सरस व दयाळू बनवितो. ॥३॥
टिप्पणी
या खंडात गुरुजन, स्नातक, महाकविकर्म, परमकवी, परमात्मा व त्याच्या काव्यरसाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे
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