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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 914
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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इ꣣च्छ꣡न्नश्व꣢꣯स्य꣣ य꣢꣫च्छिरः꣣ प꣡र्व꣢ते꣣ष्व꣡प꣢श्रितम् । त꣡द्वि꣢दच्छर्य꣣णा꣡व꣢ति ॥९१४॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡च्छ꣢न् । अ꣡श्व꣢꣯स्य । यत् । शि꣡रः꣢꣯ । प꣡र्वते꣢꣯षु । अ꣡प꣢꣯श्रितम् । अ꣡प꣢꣯ । श्रि꣣तम् । त꣢त् । वि꣣दत् । शर्यणा꣡व꣢ति ॥९१४॥


स्वर रहित मन्त्र

इच्छन्नश्वस्य यच्छिरः पर्वतेष्वपश्रितम् । तद्विदच्छर्यणावति ॥९१४॥


स्वर रहित पद पाठ

इच्छन् । अश्वस्य । यत् । शिरः । पर्वतेषु । अपश्रितम् । अप । श्रितम् । तत् । विदत् । शर्यणावति ॥९१४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 914
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

(शक्तिशाली)–कर्मों में व्याप्त रहनेवाला पुरुष 'अश्व' कहलाता है। गोतम राहूगण-प्रशस्तेन्द्रिय त्यागशील व्यक्ति (अश्वस्य) = अश्व के (शिरः) = मस्तिष्क को (इच्छन्) = चाहता हुआ (पर्वतेषु) = पञ्च पर्वोंवाली अविद्या के पर्वों के कारण (अपश्रितम्) = दूर स्थित (यत्) = जो आत्मतत्त्व है (तत्) = उसे (शर्यणावति) = हृदयान्तरिक्ष में [शर्यणो अन्तरिक्षदेश: तस्य अदूरभवे—ऋ० १.८४.१४ पर द०] (विदत्) = प्राप्त करता है।

१. ‘अश्व' शब्द कर्म का संकेत कर रहा है, ‘शिर: ' ज्ञान का और ‘इच्छन्’ सङ्कल्प या भक्ति का। इस प्रकार हमारे जीवनों में 'भक्ति, ज्ञान और कर्म' का समन्वय होता है, तभी आत्मतत्त्व का दर्शन होता है। २. यह आत्मतत्त्व अविद्या के कारण हमसे छिपा हुआ है। अविद्या पाँच पर्वोंवाली है। अविद्या के ये पाँच पर्व प्रभु को हमसे दूर रख रहे हैं— प्रभु इन पर्वों के कारण हमसे अपश्रित - दूर स्थित हैं। ३. इस प्रभु का दर्शन हमें उस हृदयावकाश में होगा जिसमें से वासनाओं का हिंसन कर दिया गया है। इस हिंसन- विशरण के कारण ही [शृ हिंसायाम् ] हृदयदेश को 'शर्यणावान्' नाम दिया गया है ।

भावार्थ -

हम अपने जीवनों में 'भक्ति, ज्ञान व कर्म' का समन्वय करें और अविद्या को दूर करके वासनाशून्य हृदय में प्रभु का दर्शन करें ।
 

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