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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 948
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
अ꣣यं꣡ विश्वा꣢꣯ अ꣣भि꣢꣫ श्रियो꣣ऽग्नि꣢र्दे꣣वे꣡षु꣢ पत्यते । आ꣢꣫ वाजै꣣रु꣡प꣢ नो गमत् ॥९४८॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣य꣢म् । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । श्रि꣡यः꣢꣯ । अ꣣ग्निः꣢ । दे꣣वे꣡षु꣢ । प꣣त्यते । आ꣢ । वा꣡जैः꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । नः । गमत् ॥९४८॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं विश्वा अभि श्रियोऽग्निर्देवेषु पत्यते । आ वाजैरुप नो गमत् ॥९४८॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । विश्वाः । अभि । श्रियः । अग्निः । देवेषु । पत्यते । आ । वाजैः । उप । नः । गमत् ॥९४८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 948
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
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विषय - श्री-पति पुरुषोत्तम
पदार्थ -
१. (अयम् अग्निः) = यह सब देवताओं का अग्रणी प्रभु ही (देवेषु) = देवताओं में जो (श्रियः) = श्री हैं (विश्वा:) = उन सबका (अभिपत्यते) = ईश है [पत् ऐश्वर्यकर्मा – नि० २.२१.२] । सूर्य, चन्द्र, अग्नि में जो तेज है, वह सब उस प्रभु की ही तो विभूति है। जलों में वे प्रभु रस हैं, तो वायु में वे प्राण हैं। पृथिवी में सब ओषधियों के उत्पादन की शक्ति भी तो उस प्रभु की ही है। बुद्धिमानों की बुद्धि प्रभु हैं – बलवानों का बल व तेजस्वियों का तेज वे प्रभु ही हैं ।
२. वे प्रभु (नः) = हमारे (उप) = समीप भी (वाजैः) = नाना प्रकार की शक्तियों से (आगमत्) = प्राप्त होते हैं। अन्नमयकोश में तेज, प्राणमयकोश में वीर्य, मनोमयकोश में ओज व बल, विज्ञानमयकोश में मन्यु तथा आनन्दमयकोश में सहस् को प्राप्त करानेवाले वे प्रभु ही हैं । इस प्रकार प्रभुकृपा से ही हम प्रत्येक कोश के वाज व ऐश्वर्य को प्राप्त करके ‘आभूति' बनते हैं। प्रभु से मेल मुझे सब कोशों की विभूति प्राप्त कराता है, अतः प्रभु से मेल करनेवाला 'प्रयोग' [उत्कृष्ट सम्पर्कवाला] ही इस मन्त्र का ऋषि है—यह भार्गव - अपना पूर्ण परिपाक करनेवाला तो है ही।
भावार्थ -
श्रीमात्र को प्रभु का अंश जान मुझे अपने वाजों की श्री का गर्व न हो - यह सब तो उस प्रभु की ही देन है । श्रीपति तो पुरुषोत्तम प्रभु ही हैं ।
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