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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 96
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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त्व꣡म꣢ग्ने꣣ व꣡सू꣢ꣳरि꣣ह꣢ रु꣣द्रा꣡ꣳ आ꣢दि꣣त्या꣢ꣳ उ꣣त꣢ । य꣡जा꣢ स्वध्व꣣रं꣢꣫ जनं꣣ म꣡नु꣢जातं घृत꣣प्रु꣡ष꣢म् ॥९६॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । अ꣣ग्ने । व꣡सू꣢꣯न् । इ꣣ह꣢ । रु꣣द्रा꣢न् । आ꣣दित्या꣢न् । आ꣣ । दित्या꣢न् । उ꣣त꣢ । य꣡ज꣢꣯ । स्व꣣ध्वर꣢म् । सु꣣ । अध्वर꣢म् । ज꣡न꣢꣯म् । म꣡नु꣢꣯जातम् । म꣡नु꣢꣯ । जा꣣तम् । घृ꣣तप्रु꣡ष꣢म् । घृ꣣त । प्रु꣡ष꣢꣯म् ॥९६॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वमग्ने वसूꣳरिह रुद्राꣳ आदित्याꣳ उत । यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥९६॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । अग्ने । वसून् । इह । रुद्रान् । आदित्यान् । आ । दित्यान् । उत । यज । स्वध्वरम् । सु । अध्वरम् । जनम् । मनुजातम् । मनु । जातम् । घृतप्रुषम् । घृत । प्रुषम् ॥९६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 96
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 10;
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पदार्थ -

हे (अग्ने)=आगे ले-चलनेवाले प्रभो ! (त्वम्) - आप (इह) इस मानव-जीवन में यज करते हो। किनके साथ?

१. (वसून्)=वसुओं के साथ, जो लोगों को बसाते हैं। निराश्रय को आश्रय देना, भूखे को रोटी और बेकार को काम देना है तो वह उसे बसाना है। बसाने के कारण वह 'वसु' कहलाता है और प्रभु के सङ्ग के योग्य बनता है।

२. (रुद्रान्)=[रुत्=शब्द, ज्ञान; रा= देना] ज्ञान देनेवाला 'रुद्र' कहलाता है। स्वयं ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान को औरों को देने के लिए प्रयत्नशील है, वह 'रुद्र' है। ये रुद्र उस महान् रुद्र के साथी बनते हैं, जो सम्पूर्ण ज्ञान का स्रोत है।

३. (उत)= और (आदित्यान्)=आदित्यों को भी प्राप्त होते हैं। सूर्य आदित्य कहलाता है, क्योंकि वह कीचड़ में से, खारे समुद्र में से और दुर्गन्धित जोहड़ों में से भी निरन्तर शुद्ध जल का आदान कर रहा है। इसी प्रकार जो प्रत्येक व्यक्ति से गुणों का ही ग्रहण करता है, वह आदित्य कहलाता है और प्रभु का प्रेमपात्र बनता है।

४. (स्वध्वरम्) = [सु अध्वरम्] = उत्तम हिंसाहित जीवनवाले को प्रभु प्राप्त होते हैं। जो मन में द्वेष नहीं करता, सूनृत- मधुर वाणी का प्रयोग करता है और हिंसा से दूर रहता है वह 'स्वध्वर' कहलाता है और प्रभु उससे स्नेह करते हैं।

५. (जनम्)=जो जनयति उत्पन्न करता है, निर्माणात्मक कार्य करता है न कि ध्वंसात्मक, उस 'जन' को प्रभु मिलते हैं।

६. (मनुजातम्) = जातो मनुर्यस्मिन्- जिसमें ज्ञान उत्पन्न हुआ है, उसे प्रभु मिलते हैं। जो व्यक्ति अपने में ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है, वह प्रभु का सङ्ग करता है।

७. (घृतप्रुषम्) = घृत शब्द घृ धातु से बना है। इसके दो अर्थ हैं- क्षरण तथा दीप्ति। प्रुष के भी दो अर्थ हैं- जला देना [to burn] तथा उँडेलना= छिड़कना [to pour out, sprinkle] जो व्यक्ति ज्ञानाग्नि द्वारा दोषों को जला डालता है वह 'घृतपुष' है। यह घृतप्रुष प्रभु को अत्यन्त प्रिय होता है।

इस प्रकार एक-एक करके, कण-कण करके उल्लिखित गुणों का अपने में संग्रह करनेवाला ‘प्रस्कण्व' इस मन्त्र का ऋषि है।

भावार्थ -

 हम अपने को प्रभु का निवास स्थान बनाने के लिए अपने में उपर्युक्त गुणों का संग्रह करने में प्रयत्नशील हों ।

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