Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 97
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
2
पु꣣रु꣡ त्वा꣢ दाशि꣣वा꣡ꣳ वो꣢चे꣣ऽरि꣡र꣢ग्ने꣣ त꣡व꣢ स्वि꣣दा꣢ । तो꣣द꣡स्ये꣢व शर꣣ण꣢꣫ आ म꣣ह꣡स्य꣢ ॥९७॥
स्वर सहित पद पाठपु꣣रु꣢ । त्वा꣣ । दाशिवा꣢न् । वो꣣चे । अरिः꣢ । अ꣣ग्ने । त꣡व꣢꣯ । स्वि꣣त् । आ꣢ । तो꣣द꣡स्य꣢ । इ꣣व शरणे꣢ । आ । म꣣ह꣡स्य꣢ ॥९७॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरु त्वा दाशिवाꣳ वोचेऽरिरग्ने तव स्विदा । तोदस्येव शरण आ महस्य ॥९७॥
स्वर रहित पद पाठ
पुरु । त्वा । दाशिवान् । वोचे । अरिः । अग्ने । तव । स्वित् । आ । तोदस्य । इव शरणे । आ । महस्य ॥९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 97
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
Acknowledgment
विषय - उसी की ओर
पदार्थ -
गत् मन्त्र में कहा गया था कि वसु आदि में परमेश्वर का वास होता है। हम भी उन सात श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी में आ सकें, इसके लिए साधनरूप तीन बातों का उल्लेख इस मन्त्र में किया गया है
१. (दाशिवान्) = [दाश् दाने] हे प्रभो! आपके प्रति समर्पण करनेवाला मैं (त्वा) = आपकी (पुरु) = बहुत (वोचे) = स्तुति करता हूँ। मैं सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते सदा आके नाम का जप करता हूँ। सदा प्रभु का स्मरण करनेवाला व्यक्ति उस शक्ति के स्रोत प्रभु को न भूलने से कर्मों का अहंकार नहीं करताल के लिए कभी व्याकुल नहीं होता उसका जीवन शान्ति से चलता है। यह दाशिवान् प्रभु का प्रिय होता है।
२. यह दाशिवान् कहता है- हे (अग्ने)-आगे ले-चलनेवाले प्रभो ! तव स्(वित्) = तेरा ही (आ) = सब प्रकार से (अरि:)- मैं भक्त बनता हूँ [अरि:=moving towards; devoted to]। मैं प्रत्येक कार्य इसी दृष्टिकोण से करता हूँ कि वह मुझे तेरी ओर लानेवाला बने । संसार में सब सन्त ‘लोकहित में लगे दीखते हैं'। वस्तुतः यही तेरी ओर आने का मार्ग है। मैं अपनी आवश्यकताओं को न्यून करता हुआ अपने को परार्थ साधन के योग्य बनाता हूँ और इस प्रकार आपकी ओर बढ़ता हूँ। अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाना प्रकृति की ओर बढ़ना और आपसे दूर हटना है।
३. मैं इस मार्ग पर न जाकर (महस्य) = आदरणीय (तोदस्य इव) = प्रेरक के समान जो आप हैं, उन्हीं की (शरणे)=शरण में आता हूँ। प्रभु अपनी प्रेरणा में सदा मधुर व शान्त हैं। वे अनन्त धैर्य के साथ सदा हृदयस्थ हो जीव को उत्तम कर्मों के लिए उत्साह तथा अशुभ कर्मों के लिए चेतावनी दे रहे हैं। उन्होंने अपना सब कुछ जीव को देकर उसके लिए महान् त्याग भी किया है। इसीलिए भी वे महनीय (तोद) = त्यागवाले [sacrificer] हैं। मैं तो आपकी ही शरण में आता हूँ।
जिस दिन जीव प्राकृतिक भोगों में सुख के भ्रान्त विचार को छोड़कर प्रभु की ओर चलेगा, उसी दिन वह अपनी भ्रान्ति को भगा देने के कारण इस मन्त्र का ऋषि 'दीर्घतमा '= अन्धकार का विदारण करनेवाला' बनेगा।
भावार्थ -
हम प्रभु के नाम का सतत जप करें, उसी की ओर चलें और उसी की शरण में पहुँचें।
इस भाष्य को एडिट करें