Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 98
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
4
प्र꣡ होत्रे꣢꣯ पू꣣र्व्यं꣢꣫ वचो꣣ऽग्न꣡ये꣢ भरता बृ꣣ह꣢त् । वि꣣पां꣡ ज्योती꣢꣯ꣳषि꣣ बि꣡भ्र꣢ते꣣ न꣢ वे꣣ध꣡से꣢ ॥९८॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । हो꣡त्रे꣢꣯ । पू꣣र्व्य꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । अ꣣ग्न꣡ये꣢ । भ꣣रत । बृह꣢त् । वि꣣पा꣢म् । ज्यो꣡तीँ꣢꣯षि꣣ । बि꣡भ्र꣢꣯ते । न । वे꣣ध꣡से꣢ ॥९८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र होत्रे पूर्व्यं वचोऽग्नये भरता बृहत् । विपां ज्योतीꣳषि बिभ्रते न वेधसे ॥९८॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । होत्रे । पूर्व्यम् । वचः । अग्नये । भरत । बृहत् । विपाम् । ज्योतीँषि । बिभ्रते । न । वेधसे ॥९८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 98
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
Acknowledgment
विषय - उसी का जप
पदार्थ -
इस मन्त्र का मुख्य वाक्य यह है कि उसी के लिए (वचः)=स्तुतिवचन का प्(र-भरत)=प्रकर्षेण सम्पादन करो। यह स्तुतिवचन ही (पूर्व्यम्) - पूरण तथा पालन करनेवाला होगा [पृ पालनपूरणयोः] तथा बृहत्-तुम्हारी वृद्धि का कारण बनेगा [बृहि वृद्धौ]। जब मनुष्य प्रभु के गुणों का गान करता है तो उन गुणों में प्रीति होकर वह अपने भक्तिभाजन के अनुरूप बनने का प्रयत्न करता है। यह प्रभु का स्मरण उसे अशुभ बातों की ओर जाने से बचाकर उसका पालन भी करता है। प्रभु के नाम का स्मरण वासना का विनाश करता है। यह नाम स्मरण अहंकार आदि सभी भावनाओं को समाप्त करने के कारण पूर्व्यम् है। यह हमें आत्मस्वरूप का स्मरण करा उत्थान की ओर ले चलने के कारण 'बृहत्' भी है।
‘हम उस प्रभु का किस रूप में स्मरण करें?' इसका उत्तर मन्त्र में (‘होत्रे'), ('अग्नये'),( ‘विपां ज्योतींषि बिभ्रते न') तथा ('वेधसे') = इन शब्दो के द्वारा दिया गया है। वे प्रभु होता हैं [हु दाने] देनेवाले हैं। जैसे माता अपने लिए कुछ भी न बचाती हुई सब कुछ बच्चों को देकर प्रसन्न होती है, उसी प्रकार यह जगयननी वस्तुतः होत्री है। अपने लिए कुछ न रखकर सब-कुछ जीव के लिए दे रही है। हमें भी अपने उस महान् सखा का अनुकरण करते हुए होता बनने का प्रयत्न करना चाहिए।
'अग्नये' शब्द आगे ले चलने की भावना को व्यक्त करता है। प्रभु हमें उन्नत करते-करते मोक्ष स्थान तक पहुँचाएँगे।
[विपां न ] =मेधावियों- जैसे लोगों के लिए (ज्योतींषि)=प्रकाश को (बिभ्रते) = धारण करते हुए प्रभु के लिए हम स्तुतिवचनों का उच्चरण करें। वे प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा आदि मेधावियों को वेद का ज्ञान प्राप्त कराते हैं और उनके द्वारा गुरु-शिष्य परम्परा से हमें भी ज्ञान देते हैं। अब भी जब हम अपनी बुद्धि को परिष्कृत करते हैं तो उस हृदयस्थ प्रभु से प्रकाश पाते हैं। हमें भी प्रकाश प्राप्त कर औरों को प्रकाश देने का प्रयत्न करना चाहिए ।
(वेधसे)=वे प्रभु (वेधा)= विधाता हैं, प्राणिमात्र का विशेषरूप से धारण कर रहे हैं। हमें भी यथासम्भव इस दिशा में प्रयत्न करना ही चाहिए।
इस प्रकार प्रभु के लिए विशेषरूप से स्तुति - वचनों को धारण करनेवाला व्यक्ति ‘गाथिनः' कहलाता है, यह सदा उसी का गायन करता हैं। यह प्राणिमात्र में प्रभु का ध्यान करता हुआ सभी का मित्र ‘विश्वामित्र' होता है। इसका सभी के साथ स्नेह ही स्नेह होता है, यह द्वेष को अपने अन्दर नहीं आने देता।
भावार्थ -
प्रभु के नाम का जप मनुष्य का पालन, पूरण व वृद्धि करनेवाला होता है।
इस भाष्य को एडिट करें