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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 968
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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प्र꣢ क꣣वि꣢र्दे꣣व꣡वी꣢त꣣ये꣢ऽव्या꣣ वा꣡रे꣢भिरव्यत । सा꣣ह्वा꣡न्विश्वा꣢꣯ अ꣣भि꣡ स्पृधः꣢꣯ ॥९६८॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । क꣣विः꣢ । दे꣣व꣡वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । अ꣡व्याः꣢꣯ । वा꣡रे꣢꣯भिः । अ꣣व्यत । साह्वा꣢न् । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣣भि꣡ । स्पृ꣡धः꣢꣯ ॥९६८॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र कविर्देववीतयेऽव्या वारेभिरव्यत । साह्वान्विश्वा अभि स्पृधः ॥९६८॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । कविः । देववीतये । देव । वीतये । अव्याः । वारेभिः । अव्यत । साह्वान् । विश्वाः । अभि । स्पृधः ॥९६८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 968
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

१. (कविः) = क्रान्तदर्शी - वस्तुओं की आपातरमणीयता में न उलझनेवाला (देववीतये) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (अव्या) = रक्षण के द्वारा तथा (वारेभिः) = वासनाओं के निवारण के द्वारा (प्र अव्यत) = अपने में प्रभु के अंश के दोहन का प्रयत्न करता है [भागदुघ] । २. यह (साह्वान्) = काम-क्रोधादि शत्रुओं का पराभव करनेवाला होता है, ३. (विश्वा:) = सब (स्पृधः अभि) = शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला होता है। यह संसार के संघर्षों में घबराता नहीं, अपितु उत्साह से सभी विघ्न-बाधाओं को जीतनेवाला 'कवि' है – क्रान्तदर्शी है, वस्तुतत्त्व को देखता है, अत: 'काश्यप' कहलाता है । दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्न करता है, अतः ‘देवल' है । विघ्न-बाधाओं से रुक नहीं जाता – शत्रुओं से आक्रान्त नहीं हो जाता, अत: ‘असित' =अबद्ध है। यही प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि बनता है । 

भावार्थ -

आत्मरक्षण व वासनानिवारण से हम दिव्य गुणों को प्राप्त करनेवाले बनें ।

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