अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - रुद्र
देवता - त्रिपदा समविषमा गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्मै॒ प्राच्या॑दि॒शो अ॑न्तर्दे॒शाद्भ॒वमि॑ष्वा॒सम॑नुष्ठा॒तार॑मकुर्वन् ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । प्राच्या॑: । दि॒श: । अ॒न्त॒:ऽदे॒शात् । भ॒वम् । इ॒षु॒ऽआ॒सम् । अ॒नु॒ऽस्था॒तार॑म् । अ॒कु॒र्व॒न् ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मै प्राच्यादिशो अन्तर्देशाद्भवमिष्वासमनुष्ठातारमकुर्वन् ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मै । प्राच्या: । दिश: । अन्त:ऽदेशात् । भवम् । इषुऽआसम् । अनुऽस्थातारम् । अकुर्वन् ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
विषय - प्राच्याः दिशः अन्तर्देशात्
पदार्थ -
१. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए सब देवों ने (प्राच्याः दिश: अन्तर्देशात्) = पूर्व दिशा के अन्तर्देश [मध्यदेश] से (भवम्) = सर्वोत्पादक प्रभु को (इष्वासम्) = धनुर्धारी-धनुष के द्वारा रक्षक (अनुष्ठातारम्) सब क्रियाओं का करनेवाला (अकुर्वन) = किया। इसे बाल्यकाल से ही यह शिक्षा प्राप्त हुई थी कि वे सर्वोत्पादक प्रभु तुम्हारे रक्षक हैं और सब क्रियाएँ उन्हीं की शक्ति व कृपा से होती हैं। २. (भवः) = वह सर्वोत्पादक (इष्वासः) = धनुर्धर प्रभु (एनम्) = इस व्रात्य को (प्राच्याः दिशः अन्तर्देशात्) = पूर्व दिशा के मध्यदेश से (अनुष्ठाता) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ (अनुतिष्ठति) = अनुकूलता से स्थित होता है। ३. (यः एवं वेद) = जो इस प्रकार उस "भव, इष्वास, अनुष्ठाता' प्रभु को समझ लेता है (एनम्) = इस विद्वान् व्रात्य को (शर्वा:) = वह [भृ हिंसायाम्] प्रलय कर्ता प्रभु [रुद्र], (न भवः) = न ही [ब्रह्म] सर्वोत्पादक प्रभु, (न ईशानः) = न ही ईश [शासक, विष्णु] (हिनस्ति) = विनष्ट करते हैं। (अस्य) = इसके (पशून् न) = पशुओं को भी नष्ट नहीं करते। (न समानान्) = न इसके समान-तुल्य गुणवाले व्यक्तियों को, बन्धु-बान्धवों को विनष्ट करते हैं।
भावार्थ -
यह व्रात्य विद्वान् पूर्वदिशा के अन्तर्देश में उस सर्वोत्पादक प्रभु को ही अपना, अपने पशुओं का, अपने समान बन्धु-बान्धवों का रक्षक जानता है, उन्हें ही कार्य करने की शक्ति देनेवाला समझता है।
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