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अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी जगती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स वि॒शोऽनु॒व्यचलत् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । विश॑: । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् ॥९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स विशोऽनुव्यचलत् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । विश: । अनु । वि । अचलत् ॥९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
विषय - 'सभा, समिति, सेना, सुरा' का अनुचलन
पदार्थ -
१. (स:) = वह गत सूक्त का राजन्य व्रात्य (विशः अनुव्यचलत्) = प्रजाओं की उन्नति का लक्ष्य करके गतिवाला हुआ। 'प्रजा-समृद्धि' ही उसके शासन का धेय बना। ऐसा होने पर (तम्) = उस राजन्य व्रात्य को (सभा च समितिः च) = व्यवस्थापिका सभा व कार्यकारिणी समिति (च) = तथा सेना (सुरा च) = [सुर ऐश्वर्य] राष्ट्ररक्षक सेना व राज्यकोष [राज्यलक्ष्मी] (अनुव्यचलन) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। २. (यः एवं वेद) = जो राजन्य व्रात्य 'प्रजा-समृद्धि को ही शासन का लक्ष्य समझ लेता है (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (सभाया: च समिते: च) = सभा व समिति का (च) = तथा (सेनायाः सुरायाः च) = सेना व राज्यलक्ष्मी का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है।
भावार्थ -
प्रजा की उन्नति को ही शासन का लक्ष्य समझनेवाला राजन्य व्रात्य-व्रती राजा-सभा-समिति, सेना व सुर [लक्ष्मी] का प्रिय बनता है।
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