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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वाङ्गिराः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - जातवेदा सूक्त
यामाहु॑तिं प्रथ॒मामथ॑र्वा॒ या जा॒ता या ह॒व्यमकृ॑णोज्जा॒तवे॑दाः। तां त॑ ए॒तां प्र॑थ॒मो जो॑हवीमि॒ ताभि॑ष्टु॒प्तो व॑हतु ह॒व्यम॒ग्निर॒ग्नये॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयाम्। आऽहु॑तिम्। प्र॒थ॒माम्। अथ॑र्वा। या। जा॒ता॑। या। ह॒व्यम्। अकृ॑णोत्। जा॒तऽवे॑दाः। ताम्। ते॒। ए॒ताम्। प्र॒थ॒मः। जो॒ह॒वी॒मि॒। ताभिः॑। स्तु॒प्तः। व॒ह॒तु॒। ह॒व्यम्। अ॒ग्निः। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑ ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यामाहुतिं प्रथमामथर्वा या जाता या हव्यमकृणोज्जातवेदाः। तां त एतां प्रथमो जोहवीमि ताभिष्टुप्तो वहतु हव्यमग्निरग्नये स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठयाम्। आऽहुतिम्। प्रथमाम्। अथर्वा। या। जाता। या। हव्यम्। अकृणोत्। जातऽवेदाः। ताम्। ते। एताम्। प्रथमः। जोहवीमि। ताभिः। स्तुप्तः। वहतु। हव्यम्। अग्निः। अग्नये। स्वाहा ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
विषय - [वेद का प्रादुर्भाव] प्रथमा आहुति
पदार्थ -
१. (याम्) = जिस (आहुतिम्) = [हु दाने] दान को (प्रथमाम्) = सर्वप्रथम अथर्वा-उस न डोलनेवाले 'अच्युत' (जातवेदा:) = सर्वज्ञ प्रभु ने (अकृणोत्) = किया, (या) = जो वेदज्ञान की देन (जाता) = अग्नि आदि ऋषियों के हदयों में प्रादुर्भूत हुई, या जो वेदज्ञान की देन हमारे लिए (हव्यम् अकृणोत्) = हव्य पदार्थों को करती है। इस वेदज्ञान से हमें चाहने योग्य 'आयु, प्राण, प्रजा, पशु, द्रविण, कीर्ति व ब्रह्मवर्चस्' आदि सब उत्तम पदार्थ प्राप्त होते हैं। प्रभु ने इस वेदज्ञान को सर्वप्रथम दिया। यह वेदज्ञान 'अग्नि' आदि ऋषियों के हृदयों में प्रादुर्भूत हुआ। यह प्रभु की सर्वप्रथम देन है। २. (ताम्) = उस (एताम्) = इस वेदज्ञान की आहुति को (ते) = आपसे (प्रथम:) = सबसे पहिले (जोहवीमि) = पुकारता हूँ-माँगता हूँ। (ताभि:) = उन वेदवाणियों से (स्तुत:) = [स्तुभ to praise] स्तुत हुआ-हुआ (अग्नि:) = वह अग्रणी प्रभु (हव्यं वहतु) = हमारे लिए सब हव्य पदार्थों को प्राप्त कराए। इस (अग्नये) = अग्रणी प्रभु के लिए (स्वाहा) = हम अपना अर्पण करते हैं। अर्पण करनेवाले हम लोगों का वे प्रभु वेदज्ञान प्राप्त कराने के द्वारा कल्याण क्यों न करेंगे?
भावार्थ - प्रभु की सर्वप्रथम देन वेदज्ञान है। प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में इसका अग्नि आदि के हृदयों में प्रकाश करते हैं। हम भी इस वेदज्ञान की याचना करते हैं। वेदवाणियों द्वारा स्तुत प्रभु हमारे लिए सब हव्य पदार्थों को प्राप्त कराएँ। हम उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करते है।
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