अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 54/ मन्त्र 4
का॒लो य॒ज्ञं समै॑रयद्दे॒वेभ्यो॑ भा॒गमक्षि॑तम्। का॒ले ग॑न्धर्वाप्स॒रसः॑ का॒ले लो॒काः प्रति॑ष्ठिताः ॥
स्वर सहित पद पाठका॒लः। य॒ज्ञम्। सम्। ऐ॒र॒य॒त्। दे॒वेभ्यः॑। भा॒गम्। अक्षि॑तम्। का॒ले। ग॒न्ध॒र्व॒ऽअ॒प्स॒रसः॑। का॒ले। लो॒काः। प्रति॑ऽस्थिताः ॥५४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
कालो यज्ञं समैरयद्देवेभ्यो भागमक्षितम्। काले गन्धर्वाप्सरसः काले लोकाः प्रतिष्ठिताः ॥
स्वर रहित पद पाठकालः। यज्ञम्। सम्। ऐरयत्। देवेभ्यः। भागम्। अक्षितम्। काले। गन्धर्वऽअप्सरसः। काले। लोकाः। प्रतिऽस्थिताः ॥५४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 54; मन्त्र » 4
विषय - यज्ञ-देवों के लिए अक्षित भाग
पदार्थ -
१. (काल:) = उस काल प्रभु ने ही (यज्ञम्) = यज्ञ को (सम् ऐरयत्) = सम्यक् प्रेरित किया है जोकि (देवभ्यः) = देवों के लिए (अक्षितम् भागम्) = क्षयरहित-क्षीण न होने देनेवाला भाग है-भजनीय कर्म है। देव यज्ञ करते हैं, अतः क्षीणशक्तिवाले नहीं होते। यज्ञशेष का सेवन करते हुए ये देव अमृत का ही सेवन कर रहे होते हैं। २. (काले) = उस काल नामक प्रभु में ही (गन्धर्वाप्सरस:) = [गां वेदवाचं धारयन्ति, अप्सु कर्मसु सरन्ति] ज्ञान की वाणियों को धारण करनेवाले ज्ञानी पुरुष तथा यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त कर्मकाण्डी लोग (प्रतिष्ठिता:) = प्रतिष्ठित होते हैं। वस्तुतः काले-उस प्रभु में ही लोकाः [प्रतिष्ठिताः] सब लोक प्रतिष्ठित [आधारित] हैं।
भावार्थ - काल नामक प्रभु देवों के लिए यज्ञ का विधान करते हैं। इस यज्ञ के द्वारा ही ये देव अक्षीणशक्ति बने रहते हैं। सब ज्ञानी व कर्मकण्डी तथा अन्य भी सब लोक इस काल नामक प्रभु में ही प्रतिष्ठित हैं।
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