अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
सूक्त - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
यत्पुरु॑षं॒ व्यद॑धुः कति॒धा व्यकल्पयन्। मुखं॒ किम॑स्य॒ किं बा॒हू किमू॒रू पादा॑ उच्यते ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। पुरु॑षम्। वि। अद॑धुः। क॒ति॒ऽधा। वि। अ॒क॒ल्प॒य॒न्। मुख॑म्। किम्। अ॒स्य॒। किम्। बा॒हू इति॑। किम्। ऊ॒रू इति॑। पादौ॑। उ॒च्ये॒ते॒ इति॑ ॥६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य किं बाहू किमूरू पादा उच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। पुरुषम्। वि। अदधुः। कतिऽधा। वि। अकल्पयन्। मुखम्। किम्। अस्य। किम्। बाहू इति। किम्। ऊरू इति। पादौ। उच्येते इति ॥६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
विषय - प्रभु का धारण
पदार्थ -
१. (यत्) = जब साधनामय जीवनवाले पुरुष (पुरुषम्) = उस परमपुरुष प्रभु को (व्यदधुः) = अपने में विशेष रूप से धारण करते हैं तब वे (कतिधा) = कितने प्रकार से (व्यकल्पयन्) = अपने को विशिष्ट सामर्थ्यवाला बनाते हैं। प्रभु का धारण करनेवाला प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर असामान्य शक्तिवाला हो जाता है। २. (अस्य) = इस प्रभु के धारण करनेवाले का (मुखं किम्) = मुख क्या बन जाता है? सामान्य व्यक्ति व इस साधक के मुख में क्या अन्तर होता है? (किं बाह) = इसकी बाहुएँ (किम् उच्यते) = क्या कही जाती है? (उरू किम्) = जाँ क्या कही जाती है? और इसीप्रकार (पादा:) = इसके पाँव [किम् उच्यते] क्या कहे जाते हैं, अर्थात् इस साधक के मुख, भुजाओं, जाँघों व पाँवों की क्रियाओं में क्या अन्तर आ जाता है? प्रभु के धारण से इसके अंगों में क्या विशेषता उत्पन्न होती है?
भावार्थ - जिज्ञासु प्रश्न करता है कि साधक के अंगों में प्रभु के धारण से किस अद्भत् शक्ति का प्रादुर्भाव होता है? प्रश्न का उत्तर अगले मन्त्र में देते हैं।
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