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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
    सूक्त - चातनः देवता - वनस्पतिः पृश्नपर्णी छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - पृश्नपर्णी सूक्त

    गि॒रिमे॑नाँ॒ आ वे॑शय॒ कण्वा॑ञ्जीवित॒योप॑नान्। तांस्त्वं दे॑वि॒ पृश्नि॑पर्ण्य॒ग्निरि॑वानु॒दह॑न्निहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गि॒रिम् । ए॒ना॒न् । आ । वे॒श॒य॒ । कण्वा॑न् । जी॒वि॒त॒ऽयोप॑नान् । तान् । त्वम् । दे॒व‍ि॒ । पृ॒श्नि॒ऽप॒र्णि॒ । अ॒ग्नि:ऽइ॑व । अ॒नु॒ऽदह॑न् । इ॒हि॒ ॥२५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गिरिमेनाँ आ वेशय कण्वाञ्जीवितयोपनान्। तांस्त्वं देवि पृश्निपर्ण्यग्निरिवानुदहन्निहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गिरिम् । एनान् । आ । वेशय । कण्वान् । जीवितऽयोपनान् । तान् । त्वम् । देव‍ि । पृश्निऽपर्णि । अग्नि:ऽइव । अनुऽदहन् । इहि ॥२५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 25; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (एनान्) = इन (जीवितयोपनान्) = [युप विमोहने] जीवन के (विमोहक) = व्याकुल करनेवाले (कण्वान्) = रोगबीजों को (गिरिम्) = पर्वतों में (आवेशय) = गाड़ दो। हे पृश्निपणे! तू इन रोगों को इसप्रकार दूर कर दे कि ये लौटकर फिर हमारे पास न आ सकें। तू इन्हें पर्वतशिलाओं के नीचे गाड़ दे। २. हे (देवि पृश्निपर्णि) = रोगों को जीतनेवाली पृश्निपणे ! (त्वम्) = तू (तान्) = उन कण्वों को (अनि: इव) = अग्नि की भाँति (अनुदहन्) = क्रमश: जलाती हुई (इहि) = हमें प्राप्त हो।

    भावार्थ -

    पृश्निपर्णी का सेवन रोगबीजों को भस्म करके हमारे जीवनों को व्याकुलता-रहित कर दे।

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