अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
इन्द्रं॑ वो वि॒श्वत॒स्परि॒ हवा॑महे॒ जने॑भ्यः। अ॒स्माक॑मस्तु॒ केव॑लः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । व॒: । वि॒श्वत॑: । परि॑ । हवा॑महे । जने॑भ्य: ॥ अ॒स्माक॑म् । अ॒स्तु॒ । केव॑ल: ॥३९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं वो विश्वतस्परि हवामहे जनेभ्यः। अस्माकमस्तु केवलः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । व: । विश्वत: । परि । हवामहे । जनेभ्य: ॥ अस्माकम् । अस्तु । केवल: ॥३९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
विषय - केवलः
पदार्थ -
१. हम (वः इन्द्रम्) = तुम सबके शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु को (विश्वत:परि) = सब ओर से इन्द्रियों को विषयों से पृथक् करके [परि-वर्जने] (जनेभ्य:) = सब लोगों के हित के लिए (हवामहे) = पुकारते हैं। हम प्रभु-स्तवन करते हैं-प्रभु हमारे अन्दर लोकहित की भावनाओं को भरते हैं। २. वे प्रभु (अस्माकम्) = हमारे (केवल:) = आनन्द में संचार करानेवाले (अस्तु) = हों। [क-सुख, वल संचरणे]।
भावार्थ - प्रभु का आराधक लोकहित में प्रवृत्त होता है। प्रभु इसे आनन्दमय जीवनवाला बनाते हैं।
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