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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 46/ मन्त्र 3
स त्वं न॑ इन्द्र॒ वाजे॑भिर्दश॒स्या च॑ गातु॒या च॑। अछा॑ च नः सु॒म्नं ने॑षि ॥
स्वर सहित पद पाठस: । त्वम् । न॒: । इ॒न्द्र॒ । वाजे॑भि: । द॒श॒स्य । च॒ । गा॒तु॒ऽया । च॒ ॥ अच्छ॑ । च॒ । न॒: । सु॒म्नम् । ने॒षि॒ ॥४६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वं न इन्द्र वाजेभिर्दशस्या च गातुया च। अछा च नः सुम्नं नेषि ॥
स्वर रहित पद पाठस: । त्वम् । न: । इन्द्र । वाजेभि: । दशस्य । च । गातुऽया । च ॥ अच्छ । च । न: । सुम्नम् । नेषि ॥४६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 46; मन्त्र » 3
विषय - सुम्नं अच्छ
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो! (सः त्वम्) = वे आप (न:) = हमें (वाजेभिः) = शक्तियों के साथ (दशस्या) = धनों को अवश्य दीजिए (च) = तथा गातुया हमारे लिए उत्तम मार्ग की इच्छा कीजिए [मार्गम् इच्छ] २. इसप्रकार हे प्रभो! आप (न:) = हमें (च) = अवश्य (सुम्नम्) = सुख (अच्छ) = की ओर (नेषि) = ले-चलते हैं।
भावार्थ - प्रभु हमें शक्ति व धन देते हैं तथा मार्ग का दर्शन कराते हैं। इसप्रकार वे प्रभु हमें सुख की ओर ले-चलते हैं। प्रभु की शरण में जानेवाला-उत्तम शरणवाला-'सुकक्ष' अगले सूक्त के प्रथम तीन मन्त्रों का ऋषि है। इसकी भावना यह है कि -
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