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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 65/ मन्त्र 2
अगो॑रुधाय ग॒विषे॑ द्यु॒क्षाय॒ दस्म्यं॒ वचः॑। घृ॒तात्स्वादी॑यो॒ मधु॑नश्च वोचत ॥
स्वर सहित पद पाठअगो॑ऽरुधाय । गो॒ऽइषे॑ । द्युक्षाय॑ । दस्म्य॑म् । वच॑: ॥ घृ॒तात् । स्वादी॑य: । मधु॑न: । च॒ । वो॒च॒त॒ ॥६५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अगोरुधाय गविषे द्युक्षाय दस्म्यं वचः। घृतात्स्वादीयो मधुनश्च वोचत ॥
स्वर रहित पद पाठअगोऽरुधाय । गोऽइषे । द्युक्षाय । दस्म्यम् । वच: ॥ घृतात् । स्वादीय: । मधुन: । च । वोचत ॥६५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 65; मन्त्र » 2
विषय - 'घृत व मधु' से अधिक स्वादिष्ट वचन
पदार्थ -
१. (अगोरुधाय) = [गाः न रुणद्धि]-ज्ञान की वाणियों को न रोकनेवाले निरन्तर ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करानेवाले, (गविषे) [गो+इष] = हमारे लिए उत्तम इन्द्रियों को प्रेरित करनेवाले और इसप्रकार (घुक्षाय) = प्रकाश में निवास करानेवाले प्रभु के लिए-प्रभु की प्राप्ति के लिए दस्म्य वचः दु:ख का नाश करनेवालों में उत्तम वचन को (वोचत) = बोलो। दु:खियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व दु:खनिवारक वचनों को बोलनेवाला ही उस प्रभु को प्राप्त करता है, जो निरन्तर ज्ञान की वाणियों व उत्तम इन्द्रियों को प्राप्त कराके हमें प्रकाश में निवासवाला बनाते हैं। २.हे मनुष्यो! प्रभु की प्राप्ति के लिए घृतात् स्वादीयः-घृत से भी अधिक (स्वादिष्ट च) = तथा (मधुनः) = शहद से भी अधिक मधुर वचन [वोचत] बोलो। कटुवचन दूसरे के हृदय को काटते हुए अन्त:स्थित प्रभु के भी निरादर का कारण होते हैं।
भावार्थ - हम प्रभु-प्राप्ति के लिए 'दुःखनाशक, घृत से भी स्वादिष्ट और शहद से भी अधिक मधुर' वचनों को बोलें। प्रभु ज्ञान की वाणियों व उत्तम इन्द्रियों को प्राप्त कराके हमारे लिए प्रकाश को प्राप्त कराते हैं।
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