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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 74

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 74/ मन्त्र 2
    सूक्त - शुनःशेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-७४

    शिप्रि॑न्वाजानां पते॒ शची॑व॒स्तव॑ दं॒सना॑। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शिप्रि॑न् । वा॒जा॒ना॒म् । प॒ते॒ । शची॑ऽव: । तव॑ । दं॒सना॑ । आ । तु । न॒: । इ॒न्द्र॒ । शं॒स॒य॒ । गोषु॑ । अश्वे॑षु । शु॒भ्रिषु॑ । स॒हस्रे॑षु । तु॒वि॒ऽम॒घ॒ ॥७४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिप्रिन्वाजानां पते शचीवस्तव दंसना। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शिप्रिन् । वाजानाम् । पते । शचीऽव: । तव । दंसना । आ । तु । न: । इन्द्र । शंसय । गोषु । अश्वेषु । शुभ्रिषु । सहस्रेषु । तुविऽमघ ॥७४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 74; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. जीव की प्रार्थना पर प्रभु जीव से कहते हैं कि (शिप्रिन्) = उत्तम हनुओं व नासिकावाले! सात्विक पदार्थों को चबाकर खाने के द्वारा उत्तम जबड़ोंवाले तथा प्राणसाधना द्वारा उत्तम नासिकावाले! सात्त्विक भोजन व प्राणायाम द्वारा (वाजानां पते) = शक्तियों के स्वामिन् ! तथा (शचीव:) = उत्तम प्रज्ञा व कोवाले (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! (तव दंसना) = तेरे कर्मों से ही तूने 'तुवीमघ' बनना है। २. तेरे कर्मों से ही तू (न:) = हमारी-हमसे दी गई इन (शुभिषु) = शुद्ध व (सहस्त्रेषु) = प्रसन्न (गोषु) = ज्ञानेन्द्रियों में तथा (अश्वेषु) = कर्मेन्द्रियों में (आशंसय) = अपने जीवन को प्रशंसनीय बना । वस्तुत: हमारे कर्म ही हमें 'तुवीमघ' बनाएंगे। सबसे प्रथम तो हम [क][शिप्रिन] उत्तम सात्त्विक भोजन को चबाकर खाएँ तथा नियमित रूप से प्राणसाधना करनेवाले हों। [ख] [वाजानां पते] सात्त्विक भोजन व प्राणायाम द्वारा शक्तियों का रक्षण करें। [ग] [शचीव:] उत्तम प्रज्ञा व कौवाले बनें।

    भावार्थ - हम 'शिप्री, वाजानां पति व शचीवान् तथा इन्द्र' बनकर शुद्ध प्रशस्त इन्द्रियोंवाले व अत्यन्त प्रशस्त जीवनवाले बनें।

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