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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषनिवारण सूक्त

    यद्ब्र॒ह्मभि॒र्यदृषि॑भि॒र्यद्दे॒वैर्वि॑दि॒तं पु॒रा। यद्भू॒तं भव्य॑मास॒न्वत्तेना॑ ते वारये वि॒षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ब्र॒ह्मऽभि॑: । यत् । ऋषि॑ऽभि: । यत् । दे॒वै: । वि॒दि॒तम् । पु॒रा । यत् । भू॒तम् । भव्य॑म् । आ॒स॒न्ऽवत् । तेन॑ । ते॒ । वा॒र॒ये॒ । वि॒षम् ॥१२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्ब्रह्मभिर्यदृषिभिर्यद्देवैर्विदितं पुरा। यद्भूतं भव्यमासन्वत्तेना ते वारये विषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ब्रह्मऽभि: । यत् । ऋषिऽभि: । यत् । देवै: । विदितम् । पुरा । यत् । भूतम् । भव्यम् । आसन्ऽवत् । तेन । ते । वारये । विषम् ॥१२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 12; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जो (ब्रह्मभि:) = वेदज्ञों ने, [वृहि वृद्धौ] शरीर की वृद्धि करनेवालों ने, (यत् ऋषिभिः) = जो तत्त्वद्रष्टा पुरुषों ने, [ऋष=to kill] विष के प्रभाव को नष्ट करनेवालों ने और (यत्) = जो ज्ञान (देवैः) = रोगों को जीतने की कामनावाले [विजिगीषा] पुरुषों ने (पुरा विदितम्) = पहले जाना है, (तेन) = उस ज्ञान के द्वारा हे (आसन्वत्) = मुख से काटनेवाले सर्प! (यत्) = जो (ते) = तेरा (भूतम्) = शरीर में व्याप्त हो चुका है और जो (भव्यम्) = शरीर में व्याप्त होनेवाला है, उस सब (विषम) = विष को (वरये) = दूर करता हूँ।

    भावार्थ -

    विष-प्रभाव को दूर करके शरीर का वर्धन करनेवाले 'वृहि वृद्धौ । विष प्रभाव को नष्ट करनेवाले व सर्प को ही नष्ट कर देनेवाले 'ऋषि हैं [ऋष-tokill] | विष-प्रभाव आदि विकारों को जीतने की कामनावाले 'देव' हैं [दिव् विजिगीषायाम्]। इन सबसे प्राप्त ज्ञान के द्वारा मैं [वैद्य] तेरे विष को दूर करता हूँ।


     

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