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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - सोमः, वनस्पतिः छन्दः - परोष्णिक् सूक्तम् - जेताइन्द्र सूक्त

    सु॒नोता॑ सोम॒पाव्ने॒ सोम॒मिन्द्रा॑य व॒ज्रिणे॑। युवा॒ जेतेशा॑नः॒ स पु॑रुष्टु॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒नो॑त । सो॒म॒ऽपाव्ने॑ । सोम॑म् । इन्दा॑य । व॒ज्रिणे॑ । युवा॑ । जेता॑ । ईशा॑न: । स: । पु॒रु॒ऽस्तु॒त: ॥२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुनोता सोमपाव्ने सोममिन्द्राय वज्रिणे। युवा जेतेशानः स पुरुष्टुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुनोत । सोमऽपाव्ने । सोमम् । इन्दाय । वज्रिणे । युवा । जेता । ईशान: । स: । पुरुऽस्तुत: ॥२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १.(सोमपाने) = सोम का रक्षण करनेवाले (यज्रिणे) = वज्रहस्त-क्रियाशील [वज गतौ] (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राति के लिए (सोमं सनोत) = सोम का अपने में सम्पादन करो। यह सोमरक्षण ही तुम्हें प्रभु-दर्शन के योग्य बनाएगा। २. वे प्रभु (युवा) = बुराइयों से अमिश्रण करनेवाले तथा अच्छाइयों से मिलानेवाले हैं, जेता-हमारे शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं, (ईशान:) = वे स्वामी हैं, (सः पुरुष्टतः) = वे खूब ही स्तुति किये जाते हैं। उनका स्तवन हमारा पालन व पूरण करनेवाला है [पू पालनपूरणयोः]।

    भावार्थ -

    प्रभु-प्राप्ति के लिए हम सोम का रक्षण करें। वे प्रभु 'युवा, जेता, ईशान व पुरुष्टुत' हैं।

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