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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 40

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - द्यावापृथिवी, सोमः, सविता, अन्तरिक्षम्, सप्तर्षिगणः, छन्दः - जगती सूक्तम् - अभय सूक्त

    अभ॑यं द्यावापृथिवी इ॒हास्तु॒ नोऽभ॑यं॒ सोमः॑ सवि॒ता नः॑ कृणोतु। अभ॑यं नोऽस्तू॒र्वन्तरि॑क्षं सप्तऋषी॒णां च॑ ह॒विषाभ॑यं नो अस्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अभ॑यम् । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । इ॒ह । अ॒स्तु॒ । न॒: । अभ॑यम् । सोम॑: । स॒वि॒ता । न॒: । कृ॒णो॒तु॒ । अभ॑यम् ॥ न॒: । अ॒स्तु॒। उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । स॒प्त॒ऽऋ॒षी॒णाम् । च॒ । ह॒विषा॑ । अभ॑यम् । न: । अ॒स्तु॒ ॥४०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभयं द्यावापृथिवी इहास्तु नोऽभयं सोमः सविता नः कृणोतु। अभयं नोऽस्तूर्वन्तरिक्षं सप्तऋषीणां च हविषाभयं नो अस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभयम् । द्यावापृथिवी इति । इह । अस्तु । न: । अभयम् । सोम: । सविता । न: । कृणोतु । अभयम् ॥ न: । अस्तु। उरु । अन्तरिक्षम् । सप्तऽऋषीणाम् । च । हविषा । अभयम् । न: । अस्तु ॥४०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 40; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. हे (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्करूप धुलोक तथा शरीररूप पृथिवीलोक! तुम दोनों के अनुग्रह से (इह) = यहाँ (न:) = हमारे लिए (अभयम् अस्तु) = अभय हो। मस्तिष्क की उचलता व शरीर की दृढ़ता हमारे जीवन को निर्भय बनाती है। (सोमः सविता) = चन्द्र और सूर्य (न: अभयं कृणोतु) = हमारे लिए अभयता करें। चन्द्रमा के समान हमारा मन मंगलदायक हो [चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशत्] तथा सूर्य के समान हमारी आँख ज्योतिर्मय हो [सूर्यश्चक्षुर्भूत्वा अक्षिणी प्राविशत्]। २. (न:) = हमारे लिए (उरु अन्तरिक्षम्) = यह विशाल हृदयाकाश (अभयम्) = निर्भयता देनेवाला हो। हमारे हदय संकुचित न हों, (च) = और (सप्तऋषीणाम्) = सप्तर्षियों [दो कान, दो आँख, दो नासिका छिद्र व मुख] की (हविषा) = हवि के द्वारा-देकर बचे हुए को खाने के द्वारा (न:) = हमारे लिए (अभयं अस्तु) = निर्भयता हो। सदा यज्ञशेष का सेवन इन सप्तर्षियों को सदा नीरोग रखता है। इनका स्वास्थ्य ही हमें मृत्यु-भय से बचाता है।

    भावार्थ -

    हमारा मस्तिष्क ज्ञानसूर्य से उज्ज्वल हो, शरीर पृथिवी के समान दृढ़ हो, मन चन्द्रमा के समान शीतल, बुद्धि सूर्य के समान तेजोदीत तथा हृदय अन्तरिक्ष के समान विशाल हो। हमारी इन्द्रियाँ हवि का ग्रहण करनेवाली बनें-यज्ञशेष का सेवन करती हुई ये इन्द्रियाँ नौरोग हों। इसप्रकार हमें 'अभय' प्राप्त हो।

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