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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 65

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 65/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः, पराशरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    निर्ह॑स्तेभ्यो नैर्ह॒स्तं यं दे॑वाः॒ शरु॒मस्य॑थ। वृ॒श्चामि॒ शत्रू॑णां बा॒हून॒नेन॑ ह॒विषा॒ऽहम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि:ऽह॑स्तेभ्य: । नै॒:ऽह॒स्तम् । यम् । दे॒वा॒: । शरु॑म् । अस्य॑थ । वृ॒श्चामि॑ । शत्रू॑णाम् । बा॒हून् । अ॒नेन॑ । ह॒विषा॑ । अ॒हम् ॥६५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निर्हस्तेभ्यो नैर्हस्तं यं देवाः शरुमस्यथ। वृश्चामि शत्रूणां बाहूननेन हविषाऽहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि:ऽहस्तेभ्य: । नै:ऽहस्तम् । यम् । देवा: । शरुम् । अस्यथ । वृश्चामि । शत्रूणाम् । बाहून् । अनेन । हविषा । अहम् ॥६५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 65; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. हे (देवा:) = शत्रुओं के पराजय की कमानवाले सैनिको! [दिव् विजिगीषा] (निहस्तेभ्य:) = हम निहत्थे प्रजाजनों के रक्षण के लिए (यम्) = जिस (नहस्तम्) = शत्रुओं को निहत्था करनेवाले (शरूम) = हिंसक बाण आदि आयुध को (अस्यथ) = तुम फेंकते हो, तो (अहम्) = मैं प्रजाजन भी (अनेन हविषा) = इस हवि के द्वारा राष्ट्र रक्षा के लिए दिये जानेवाले धन के द्वारा (शत्रूणां बाहून्) = शत्रुओं की भुजाओं को (वृश्चामि) = काटता हूँ।

    भावार्थ -

    शस्त्रास्त्रशून्य हाथोंवाले प्रजाजनों के रक्षण के लिए सैनिक शक्तिप्रयोग के द्वारा शत्रुओं को निहत्था करनेवाले हों। प्रजाजन धन-प्रदान द्वारा इस युद्ध में सफलता प्राप्त करानेवाली हो|

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