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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
यथा॑ मां॒सं यथा॒ सुरा॒ यथा॒क्षा अ॑धि॒देव॑ने। यथा॑ पुं॒सो वृ॑षण्य॒त स्त्रि॒यां नि॑ह॒न्यते॒ मनः॑। ए॒वा ते॑ अघ्न्ये॒ मनोऽधि॑ व॒त्से नि ह॑न्यताम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । मां॒सम् । यथा॑ । सुरा॑ । यथा॑ । अ॒क्षा: । अ॒धि॒ऽदेव॑ने । यथा॑ । पुं॒स: । वृ॒ष॒ण्य॒त: । स्त्रि॒याम् । नि॒ऽह॒न्यते॑ । मन॑: । ए॒व । ते॒ । अ॒घ्न्ये॒ । मन॑: । अधि॑ । व॒त्से । नि । ह॒न्य॒ता॒म् ॥७०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा मांसं यथा सुरा यथाक्षा अधिदेवने। यथा पुंसो वृषण्यत स्त्रियां निहन्यते मनः। एवा ते अघ्न्ये मनोऽधि वत्से नि हन्यताम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । मांसम् । यथा । सुरा । यथा । अक्षा: । अधिऽदेवने । यथा । पुंस: । वृषण्यत: । स्त्रियाम् । निऽहन्यते । मन: । एव । ते । अघ्न्ये । मन: । अधि । वत्से । नि । हन्यताम् ॥७०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
विषय - अध्या और वत्स
पदार्थ -
१. (यथा) = जैसे (मांसम्) = फल का गूदा (यथा) = जैसे (सुरा) = मेघजल और (यथा) = जैसे (अधिदेवने) = [अधि परि दीव्यन्ति कितव:] द्यूत-स्थान में (अक्षा:) = पासे प्रियतम होते हैं और (यथा) = जैसे (वृषण्यतः पुंसः) = सुरतार्थी पुरुष का (मन:) = मन स्(त्रियां निहन्यते) = स्त्री के प्रति झुकाववाला होता है (एव) = उसी प्रकार हे अध्ये कभी भी नष्ट न करने योग्य वेदवाणि! (ते) = तेरा (मन:) = मन (अधिवत्से) = [वदति] इस स्वाध्यायशील व्यक्ति पर (निहन्यताम्) = प्रह्रीभूत हो। जिस प्रकार मांस आदि प्रेमास्पद होते है, इसीप्रकार मैं वत्स तेरा प्रेमास्पद बन पाऊँ, अर्थात् मैं कभी तुझसे पृथक् न होऊँ। २. (यथा) = जैसे (हस्ती) = हाथी (हस्तिन्या: पदम्) = हथिनी के पैर को (पदेन) = अपने पैर से प्रेमपूर्वक (उद्युजे) = ऊपर उठाता है, जैसे सुरतार्थी पुरुष का मन स्त्री के प्रति प्रेमवाला होता है, उसी प्रकार इस वेदवाणी का मन मेरे प्रति प्रेमवाला हो। ३. (यथा) = जैसे (प्रधि:) = लोहे का हल लकड़ी के बने भीतरी चक्र पर रहता है, (यथा) = जैसे (उपधिः) = लकड़ी का चक्र अरों के द्वारा भीतरी धुरे पर रहता है, (यथा नाभ्यम्) = जैसे बीच का धुरा (अधिप्रधौ) = क्रम से अरों और लकड़ी के चक्रसहित अरों पर आ जाता है। जैसे सुरतार्थी पुरुष का मन स्त्री पर गड़ा होता है, उसी प्रकार वेदवाणी का मन मुझ [वत्स] पर गड़ा हो।
भावार्थ -
वेदवाणी का अध्ययन ही हमारा मांस हो, यही हमारी शराब वा मेघजल हो। यही हमारी द्यूतक्रीड़ा हो, यही हमारा प्रेमालिङ्गन हो। वेदवाणी हथिनी हो तो मैं उसका हाथी बनूँ। प्रधि, उपधि, नभ्य आदि जैसे परस्पर जुड़े होते हैं उसी प्रकार मैं और वेदवाणी जुड़े हुए हों। मैं कभी वेदाध्ययन का परित्याग न काँ। वेदवाणी अन्या गौ हो, मैं उसका वत्स [बछड़ा] बनें।
विशेष -
यह वेदवाणी का वत्स 'ब्रह्मा' बनता है-ज्ञानी बनता है। यही ज्ञानी अन्नदोष व प्रतिग्रहदोष से बचने के लिए यत्नशील होता है।