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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 108

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 108/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    यो नः॑ सु॒प्ताञ्जाग्र॑तो वाभि॒दासा॒त्तिष्ठ॑तो वा॒ चर॑तो जातवेदः। वै॑श्वान॒रेण॑ स॒युजा॑ स॒जोषा॒स्तान्प्र॒तीचो॒ निर्द॑ह जातवेदः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । न॒: । सु॒प्तान् । जाग्र॑त: । वा॒ । अ॒भि॒ऽदासा॑त् । तिष्ठ॑त: । वा॒ । चर॑त: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । वै॒श्वा॒न॒रेण॑ । स॒ऽयुजा॑ । स॒ऽजोषा॑: । तान् । प्र॒तीच॑: । नि: । द॒ह॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: ॥११३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नः सुप्ताञ्जाग्रतो वाभिदासात्तिष्ठतो वा चरतो जातवेदः। वैश्वानरेण सयुजा सजोषास्तान्प्रतीचो निर्दह जातवेदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । न: । सुप्तान् । जाग्रत: । वा । अभिऽदासात् । तिष्ठत: । वा । चरत: । जातऽवेद: । वैश्वानरेण । सऽयुजा । सऽजोषा: । तान् । प्रतीच: । नि: । दह । जातऽवेद: ॥११३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 108; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (य:) = जो (न:) = हम (सुप्तान) = सोते हुओं को, (जाग्रत:) = जागते हुओं को, (तिष्ठत: चरतः वा) = खड़े हुओं को या चलते हुओं को (अभिदासात्) = उपक्षित [विनष्ट] करे, हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (वैश्वानरेण सयुजा) = जाठराग्रिरूप सहाय से [साथी से] मिलकर (सजोषा:) = समानरूप से दुष्टदमनरूप कार्य का [जुष् सेवने] सेवन करनेवाले आप (प्रतीच:) = हमारे विनाश के लिए हमारी ओर आते हुए (तान्) = उन शत्रुओं को (निर्दह) = नितरां दग्ध कर दीजिए। २. इन औरों का उपक्षय करनेवालों की जाठराग्नि ठीक न रहे और इसप्रकार रोगाक्रान्त होकर वे स्वयं ही विनष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ -

    औरों का उपनय करनेवाले लोग प्रभ से इसप्रकार दण्डित होते हैं कि इनकी जाठराग्नि विकृत होकर इन्हें रोगी बनाकर विनष्ट कर देती है।

    पापवृत्ति से दूर होकर, धर्म में स्थिरवृत्तिवाला [बद स्थैर्य] 'बादरायणि' अगले सूक्त का -

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