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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 109

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 109/ मन्त्र 5
    सूक्त - बादरायणिः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त

    यो नो॑ द्यु॒वे धन॑मि॒दं च॒कार॒ यो अ॒क्षाणां॒ ग्लह॑नं॒ शेष॑णं च। स नो॑ दे॒वो ह॒विरि॒दं जु॑षा॒णो ग॑न्ध॒र्वेभिः॑ सध॒मादं॑ मदेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । न॒: । द्यु॒वे । धन॑म् । इ॒दम् । च॒कार॑ । य: । अ॒क्षाणा॑म् । ग्लह॑नम् । शेष॑णम् । च॒ । स: । न॒: । दे॒व: । ह॒वि: । इ॒दम्। जु॒षा॒ण: । ग॒न्ध॒र्वेभि॑: । स॒ध॒ऽमाद॑म् । म॒दे॒म॒ ॥११४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नो द्युवे धनमिदं चकार यो अक्षाणां ग्लहनं शेषणं च। स नो देवो हविरिदं जुषाणो गन्धर्वेभिः सधमादं मदेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । न: । द्युवे । धनम् । इदम् । चकार । य: । अक्षाणाम् । ग्लहनम् । शेषणम् । च । स: । न: । देव: । हवि: । इदम्। जुषाण: । गन्धर्वेभि: । सधऽमादम् । मदेम ॥११४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 109; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (यः) = जो प्रभु (नः द्युवे) = हमारे व्यवहार की सिद्धि के लिए (इदं धनं चकार) = इस धन को करते हैं, अर्थात् कार्यसिद्धि के लिए आवश्यक धन प्राप्त कराते हैं। (य:) = जो प्रभु (अक्षाणाम्) = पवित्र ज्ञानों के (ग्लहनम्) = ग्रहण को (शेषणं च) = तथा विशिष्टता को करते हैं, अर्थात् हमारे लिए पवित्र ज्ञानों को विशेषरूप से प्राप्त कराते हैं, (सः देव:) = वे प्रकाशमय प्रभु (न:) = हमारी (इदं हवि:) = इस हवि को-दानपूर्वक अदन को, यज्ञशेष के सेवन की वृत्ति को (जुषाण:) = प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले हों। यह हवि हमें प्रभु का प्रिय बनाये। २. हम अपने इस जीवन में (गन्धर्वेभिः) = ज्ञान की बाणियों का धारण करनेवालों के साथ (सधमादं मदेम) = मिलकर एक स्थान में स्थित होते हुए आनन्द का अनुभव करें।

    भावार्थ -

    प्रभु हमें कार्यसाधक धन प्राप्त कराते हैं, विशिष्ट पवित्र ज्ञान का ग्रहण कराते हैं। हम हवि द्वारा, त्यागपूर्वक अदन के द्वारा प्रभु का पूजन करें और ज्ञानियों के साथ मिल बैठते हुए आनन्द का अनुभव करें।

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