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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 54/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ऋक्सामनी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विघ्नशमन सूक्त
ऋचं॒ साम॑ यजामहे॒ याभ्यां॒ कर्मा॑णि कु॒र्वते॑। ए॒ते सद॑सि राजतो य॒ज्ञं दे॒वेषु॑ यच्छतः ॥
स्वर सहित पद पाठऋच॑म् । साम॑ । य॒जा॒म॒हे॒ । याभ्या॑म् । कर्मा॑णि । कु॒र्वते॑ । ए॒ते इति॑ । सद॑सि । रा॒ज॒त॒: । य॒ज्ञम् । दे॒वेषु॑ । य॒च्छ॒त॒: ॥५६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋचं साम यजामहे याभ्यां कर्माणि कुर्वते। एते सदसि राजतो यज्ञं देवेषु यच्छतः ॥
स्वर रहित पद पाठऋचम् । साम । यजामहे । याभ्याम् । कर्माणि । कुर्वते । एते इति । सदसि । राजत: । यज्ञम् । देवेषु । यच्छत: ॥५६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 54; मन्त्र » 1
विषय - विद्या श्रद्धा
पदार्थ -
१. 'ऋक्' विज्ञान का प्रतीक है, 'साम' उपासना [श्रद्धा] व शान्ति का प्रतीक है। ऋक् का स्थान 'मस्तिष्क' है, साम का 'हदय । हम अपने जीवनों में (ऋचं साम) = विज्ञान व श्रद्धा को, मस्तिष्क व हृदय को (यजामहे) = संगत कर देते हैं। हमारे जीवनरूप धनुष का एक सिरा 'ऋक्' [विज्ञान] है और दूसरा 'साम' 'उपासना' है। ये ही वे दो तत्त्व हैं (याभ्याम्) = जिनसे कि (कर्माणि कुर्वते) = सब कर्मों को किया करते हैं। विद्या व श्रद्धा से किये जानेवाले कर्म ही वीर्यवत्तर हुआ करते हैं। २. (एते) = मिले हुए ये ऋक् और साम, विद्या और श्रद्धा ही (सदसि राजत:) = सभा में शोभायमान होते हैं। सभा में प्रतिष्ठा श्रद्धावान् ज्ञानी' की होती है, केवल श्रद्धालु की नहीं, केवल ज्ञानी की नहीं। ये ऋक् और साम (देवेषु) = देववृत्ति के विद्वानों में (यज्ञं यच्छतः) = यज्ञ को देते हैं। विज्ञान और श्रद्धा होने पर ही देव यज्ञशील बनते हैं।
भावार्थ -
श्रद्धा और विद्या के समन्वय से सृष्टि में उत्तम कर्म होते हैं। इनका मेल ही सभा में शोभा का कारण बनता है। इन दोनों के होने पर देव यज्ञशील बनते हैं।
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