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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्राह्मणम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्म सूक्त
यद्य॒न्तरि॑क्षे॒ यदि॒ वात॒ आस॒ यदि॑ वृ॒क्षेषु॒ यदि॒ वोल॑पेषु। यदश्र॑वन्प॒शव॑ उ॒द्यमा॑नं॒ तद्ब्राह्म॒णं पुन॑र॒स्मानु॒पैतु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । अ॒न्तरि॑क्षे । यदि॑ । वाते॑ । आस॑ । यदि॑ । वृ॒क्षेषु॑ । यदि॑ । वा॒ । उल॑पेषु । यत् । अश्र॑वन् । प॒शव॑: । उ॒द्यमा॑नम् । तत् । ब्राह्म॑णम् । पुन॑: । अ॒स्मान् । उ॒प॒ऽऐतु॑ ॥६८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्यन्तरिक्षे यदि वात आस यदि वृक्षेषु यदि वोलपेषु। यदश्रवन्पशव उद्यमानं तद्ब्राह्मणं पुनरस्मानुपैतु ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । अन्तरिक्षे । यदि । वाते । आस । यदि । वृक्षेषु । यदि । वा । उलपेषु । यत् । अश्रवन् । पशव: । उद्यमानम् । तत् । ब्राह्मणम् । पुन: । अस्मान् । उपऽऐतु ॥६८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
विषय - पशवः ब्राह्मणं अश्रवन्
पदार्थ -
१. (यदि) = यदि (अन्तरिक्षे) = इस विशाल अन्तरिक्ष में (ब्राह्मणम्) = ब्रह्मज्ञान (आस) = है। अन्तरिक्ष अपने सब लोक-लोकान्तरों द्वारा प्रभु के स्वरूप का ज्ञान करा रहा है, (यदि वाते) = अथवा निरन्तर बहनेवाले वायु में जो ब्रह्मज्ञान है, यदि (वृक्षेषु) = यदि वृक्षों की रचना में जो प्रभु की महिमा का प्रादुर्भाव हो रहा है, (यदि वा उलपेषु) = अथवा इन कोमल तणों में भी ब्रह्म की महिमा दिख रही है। अन्तरिक्ष के अनन्त लोक-लोकान्तर तो प्रभु की महिमा का प्रकाश कर ही रहे हैं, वायु भी किस प्रकार जीवन का आधार बनती है? वृक्षों के मूल में डाला हुआ पानी किस प्रकार शिखर तक पहुँचता है? कुशा घास में शरीर के सब मलों के संहार की क्या अद्भुत शक्ति है? २. इन सबसे (उद्यमानम्) = उच्चारण किये जाते हुए (यत्) = जिस ब्रह्मज्ञान को (पशव:) = [पश्यन्ति इति] तत्त्वद्रष्टा पुरुष ही (अश्रवन्) = सुन पाते हैं, (तत्) [बाह्मणम्] = वह ब्रह्मज्ञान (पुनः) = फिर (अस्मान् उपतु) = हमें प्राप्त हो। हम भी इन अन्तरिक्ष आदि से उच्चारित होते हुए ब्रह्मज्ञान को सुननेवाले बनें।
भावार्थ -
अन्तरिक्ष, वायु, वृक्ष व पत्थरों में सर्वत्र प्रभुमहिमा का प्रादुर्भाव हो रहा है। इस उच्चरित होती हुई महिमा को तत्त्वद्रष्टा पुरुष ही सुना करते हैं। यह ब्रह्मज्ञान हमें भी प्राप्त हो।
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