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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 75/ मन्त्र 2
सूक्त - उपरिबभ्रवः
देवता - अघ्न्या
छन्दः - त्र्यवसाना भुरिक्पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अघ्न्या सूक्त
प॑द॒ज्ञा स्थ॒ रम॑तयः॒ संहि॑ता वि॒श्वना॑म्नीः। उप॑ मा देवीर्दे॒वेभि॒रेत॑। इ॒मं गो॒ष्ठमि॒दं सदो॑ घृ॒तेना॒स्मान्त्समु॑क्षत ॥
स्वर सहित पद पाठप॒द॒ऽज्ञा: । स्थ॒ । रम॑तय: । सम्ऽहि॑ता: । वि॒श्वऽना॑म्नी: । उप॑ । मा॒ । दे॒वी॒: । दे॒वेभि॑: । आ । इ॒त॒ । इ॒मम् । गो॒ऽस्थम् । इ॒दम् । सद॑: । घृ॒तेन॑ । अ॒स्मान् । सम् । उ॒क्ष॒त॒ ॥७९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
पदज्ञा स्थ रमतयः संहिता विश्वनाम्नीः। उप मा देवीर्देवेभिरेत। इमं गोष्ठमिदं सदो घृतेनास्मान्त्समुक्षत ॥
स्वर रहित पद पाठपदऽज्ञा: । स्थ । रमतय: । सम्ऽहिता: । विश्वऽनाम्नी: । उप । मा । देवी: । देवेभि: । आ । इत । इमम् । गोऽस्थम् । इदम् । सद: । घृतेन । अस्मान् । सम् । उक्षत ॥७९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 75; मन्त्र » 2
विषय - रमतयः विश्वनाम्नी:
पदार्थ -
१. हे (रमतयः) = पयःप्रदान आदि से रमयित्री गौवो! तुम (पदज्ञाः स्थ) = [पद्यते गम्यते इति पदं गृहम्] अपने-अपने घर को जाननेवाली हो। गोसंचर स्थान में चरकर फिर अपने घर में ही आनेवाली हो। तुम (संहिता:) = बछड़ों से युक्त हो, (विश्वनाम्री:) = बहुविध नामोंवाली हो [इडे रन्तेऽदिते सरस्वति प्रिये प्रेयसि महि विश्रुत्येतानि ते अन्ये नामानि-तै०७।१।६।८] अथवा आप विश्व को अपनी ओर झुकानेवाली हो, क्षीरादि के लाभ के लिए सब गौवों को चाहते ही हैं। २. इसलिए हे (देवी:) = रोगों को पराजित करने की कामनावाली तुम (देवेभि:) = क्रीड़ा करते हुए अपने बछड़ों के साथ (मा उप एत) = मुझे समीपता से प्राप्त होओ और आकर (इमं गोष्ठम्) = इस गो-निवासस्थान को, (इदं सदः) = इस हमारे घर को और (अस्मान्) = हम गृहस्वामियों को (घृतेन समक्षत) = घूतोत्पादक दूध से सिक्त कर दो। आपके कारण हमारे घरों में घी-दूध की कमी न रहे।
भावार्थ -
गौवें हमारे जीवन को आनन्दयुक्त करनेवाली हैं। दूध आदि की प्राप्ति के लिए सब कोई इनकी प्रार्थना करता हैं। ये हमारे रोगों को पराजित करती हैं, अत: हमारे घरों में इनके द्वारा दूध की कमी न रहे।
अगले सूक्त का ऋषि 'अथर्वा' है। वह स्थिरवृत्ति का होता हुआ 'गण्डमाला' आदि रोगों का विनाश करता है -
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