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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
सं॒व॒त्स॒रीणा॑ म॒रुतः॑ स्व॒र्का उ॒रुक्ष॑याः॒ सग॑णा॒ मानु॑षासः। ते अ॒स्मत्पाशा॒न्प्र मु॑ञ्च॒न्त्वेन॑सः सांतप॒ना म॑त्स॒रा मा॑दयि॒ष्णवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽव॒त्स॒रीणा॑: । म॒रुत॑: । सु॒ऽअ॒र्का: । उ॒रुऽक्ष॑या: । सऽग॑णा: । मानु॑षास: । ते । अ॒स्मत् । पाशा॑न् । प्र । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । एन॑स: । सा॒म्ऽत॒प॒ना: । म॒त्स॒रा: । मा॒द॒यि॒ष्णव॑: ॥८२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
संवत्सरीणा मरुतः स्वर्का उरुक्षयाः सगणा मानुषासः। ते अस्मत्पाशान्प्र मुञ्चन्त्वेनसः सांतपना मत्सरा मादयिष्णवः ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽवत्सरीणा: । मरुत: । सुऽअर्का: । उरुऽक्षया: । सऽगणा: । मानुषास: । ते । अस्मत् । पाशान् । प्र । मुञ्चन्तु । एनस: । साम्ऽतपना: । मत्सरा: । मादयिष्णव: ॥८२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 77; मन्त्र » 3
विषय - 'संवत्सरीणाः स्वर्का:' मरुतः
पदार्थ -
१. (संवत्सरीणा:) = सम्यक निवास के हेतुभूत मरुतः प्राण स्वाः -[अर्कम् अन्नम्] उत्तम अन्न का सेवन करनेवाले हैं। प्राणसाधक को सदा सात्त्विक अन्न का ही सेवन करना है। ये प्राण उरुक्षयाः-विशाल निवास स्थानवाले हैं, ये शरीर की शक्तियों की विशालता का कारण बनते हैं। सगणा:-[ससगणा वै मरुतः-तै०२.२.५.७.] सात-सात के सात गणोंवाले हैं। उनचास भागों में बँटकर शरीर में कार्य कर रहे हैं। मानुषासः मनुष्य का हित करनेवाले हैं। हमें विचारशील बनानेवाले हैं। २. ये ते-वे मरुत् [प्राण] अस्मत्-हमसे एनस: पाशान् पाप के पाशों को प्रतिमुञ्चन्तु-छुड़ा दें। सान्तपना:-ये हमें अति दीत जीवनवाला बनाते हैं, मत्सरा:-आनन्दपूर्वक गति करनेवाले हैं और मादयिष्णव: हमें सन्तोष प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ -
प्राणसाधना के साथ सात्त्विक अन्न का सेवन करते हुए हम 'दीर्घजीवी, विशाल शक्तियोंवाले, विचारशील, निष्पाप, दीस, प्रसन्न व सन्तोषवाले' बनेगें।
यह प्राणसाधक 'अथर्वा' बनता है, यही अगले सूक्तों का ऋषि है -
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