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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 3
उदु॑त्त॒मं व॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒मं श्र॑थाय। अधा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते त॒वाना॑गसो॒ अदि॑तये स्याम ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । उ॒त्ऽत॒मम् । व॒रु॒ण॒ । पाश॑म् । अ॒स्मत् । अव॑ । अ॒ध॒मम् । वि । म॒ध्य॒मम् । श्र॒य॒थ॒ । अध॑ । व॒यम् । आ॒दि॒त्य॒ । व्र॒ते । तव॑ । अना॑गस: । अदि॑तये । स्या॒म॒ ॥८८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अधा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । उत्ऽतमम् । वरुण । पाशम् । अस्मत् । अव । अधमम् । वि । मध्यमम् । श्रयथ । अध । वयम् । आदित्य । व्रते । तव । अनागस: । अदितये । स्याम ॥८८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 3
विषय - 'उत्तम, अधम व मध्यम' पाश-विच्छेद
पदार्थ -
१. हे (वरुण) = पापनिवारक प्रभो! (उत्तम पाशं अस्मत् उत् श्रथाय) = उत्तम पाश को भी हमसे पृथक् करके नष्ट कीजिए। ('सत्वं सखे सजयति') = सत्त्वगुण भी तो हमें योग व स्वाध्याय के आनन्द में आसक्त कर देता है, उसमें फंसे हुए हम आवश्यक रक्षात्मक कर्मों को न भूल जाएँ। (अधम अव) [ श्रथाय] = निकृष्ट पाश को हमसे दूर कीजिए, तमोगुण के 'प्रमाद, आलस्य, निद्रा' रूप पाश में हम न फैंसे रहें। (मध्यम वि) [श्रथाय] = इस मध्यम, अर्थात् रजोगुण के पाश को भी हमसे अलग कीजिए। धन की तृष्णा में फंसे हुए हम हर समय इसकी प्राप्ति की भाग दौड़ में ही न रह जाएँ। २. (अध) = अब (वयम्) = हम हे (आदित्य) = [आदानात् आदित्यः] सब गुणों का आदान करनेवाले व सब बन्धनों का खण्डन [दाप् लवने] करनेवाले वरुण! (तव व्रते) = आपके उपदिष्ट व्रतों में (अनागस:) = निष्पाप जीवनवाले होते हुए (अदितये) = अखण्डितत्व व अविनाश के लिए हों।
भावार्थ -
हम 'सत्त्व, रज व तम' के 'सुख, तृष्णा व प्रमादालस्य-निद्रा' रूप बन्धनों को परे फेंककर प्रभु से उपदिष्ट मार्ग पर चलते हुए अखण्डित जीवनवाले हों।
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