ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 7
वि॒भ॒क्तारं॑ हवामहे॒ वसो॑श्चि॒त्रस्य॒ राध॑सः। स॒वि॒तारं॑ नृ॒चक्ष॑सम्॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽभ॒क्तार॑म् । ह॒वा॒म॒हे॒ । वसोः॑ । चि॒त्रस्य॑ । राध॑सः । स॒वि॒तार॑म् । नृ॒ऽचक्ष॑सम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम्॥
स्वर रहित पद पाठविऽभक्तारम्। हवामहे। वसोः। चित्रस्य। राधसः। सवितारम्। नृऽचक्षसम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
पदार्थ -
पदार्थ = ( वसोः ) = सुखों के निवास हेतु ( चित्रस्य ) = आश्चर्यस्वरूप ( राधस: ) = धन को ( विभक्तारम् ) = बाँटने हारे ( सवितारम् ) = सबके उत्पादक ( नृचक्षसम् ) = मनुष्यों के सब कर्मों को देखने हारे परमेश्वर की हम सब लोग ( हवामहे ) = प्रशंसा करें।
भावार्थ -
भावार्थ = सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी परमेश्वर सब मनुष्यों को उनके कर्मों के अनुसार अनेक प्रकार का धन देता है जिस धन से मनुष्य अपने लोक और परलोक को सुधार सकते हैं। ऐसे धन को मद्य, मांस-सेवन और व्यभिचारादि पाप कर्मों में कभी नहीं लगाना चाहिये, किन्तु धार्मिक कामों में ही खर्च करना चाहिये, जिससे मनुष्य का यह लोक और परलोक सुधर सके।
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