ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 7
वि॒भ॒क्तारं॑ हवामहे॒ वसो॑श्चि॒त्रस्य॒ राध॑सः। स॒वि॒तारं॑ नृ॒चक्ष॑सम्॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽभ॒क्तार॑म् । ह॒वा॒म॒हे॒ । वसोः॑ । चि॒त्रस्य॑ । राध॑सः । स॒वि॒तार॑म् । नृ॒ऽचक्ष॑सम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम्॥
स्वर रहित पद पाठविऽभक्तारम्। हवामहे। वसोः। चित्रस्य। राधसः। सवितारम्। नृऽचक्षसम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सवितृशब्देनेश्वरसूर्य्यगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा वयं नृचक्षसं वसोश्चित्रस्य राधसो विभक्तारं सवितारं परमेश्वरं सूर्य्यं वा हवामहे आददीमहि तथैव यूयमप्यादत्त॥७॥
पदार्थः
(विभक्तारम्) जीवेभ्यस्तत्तत्कर्मानुकूलफलविभाजितारम्। विविधपदार्थानां पृथक् पृथक् कर्त्तारं वा (हवामहे) आदद्मः। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपः स्थाने श्लोरभावः। (वसोः) वस्तुजातस्य (चित्रस्य) अद्भुतस्य (राधसः) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यादिधनस्य च (सवितारम्) उत्पादकमैश्वर्य्यहेतुं वा (नृचक्षसम्) नृषु चक्षा अन्तर्य्यामिरूपेण विज्ञानप्रकाशो वा यस्य तम्॥७॥
भावार्थः
अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्यतः परमेश्वरः सर्वशक्तिमत्त्वसर्वज्ञत्वाभ्यां सर्वजगद्रचनं कृत्वा सर्वेभ्यः कर्मफलप्रदानं करोति। सूर्य्योऽग्निमयत्वछेदकत्वाभ्यां मूर्त्तद्रव्याणां विभागप्रकाशौ करोति, तस्मादेतौ सर्वदा युक्त्योपचर्य्यौ॥७॥
हिन्दी (5)
विषय
अगले मन्त्र में सविता शब्द से ईश्वर और सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है-
पदार्थ
हे मनुष्य लोगो ! जैसे हम लोग (नृचक्षसम्) मनुष्यों में अन्तर्यामिरूप से विज्ञान प्रकाश करने (वसोः) पदार्थों से उत्पन्न हुए (चित्रस्य) अद्भुत (राधसः) विद्या सुवर्ण वा चक्रवर्ति राज्य आदि धन के यथायोग्य (विभक्तारम्) जीवों के कर्म के अनुकूल विभाग से फल देने वा (सवितारम्) जगत् के उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर और (नृचक्षसम्) जो मूर्त्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करने (वसोः) (चित्रस्य) (राधसः) उक्त धनसम्बन्धी पदार्थों को (विभक्तारम्) अलग-अलग व्यवहारों में वर्त्ताने और (सवितारम्) ऐश्वर्य्य हेतु सूर्य्यलोक को (हवामहे) स्वीकार करें, वैसे तुम भी उनका ग्रहण करो॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को उचित है कि जिससे परमेश्वर सर्वशक्तिपन वा सर्वज्ञता से सब जगत् की रचना करके सब जीवों को उसके कर्मों के अनुसार सुख दुःखरूप फल को देता और जैसे सूर्य्यलोक अपने ताप वा छेदनशक्ति से मूर्त्तिमान् द्रव्यों का विभाग और प्रकाश करता है, इससे तुम भी सबको न्यायपूर्वक दण्ड वा सुख और यथायोग्य व्यवहार में चला के विद्यादि शुभ गुणों को प्राप्त कराया करो॥७॥
पदार्थ
पदार्थ = ( वसोः ) = सुखों के निवास हेतु ( चित्रस्य ) = आश्चर्यस्वरूप ( राधस: ) = धन को ( विभक्तारम् ) = बाँटने हारे ( सवितारम् ) = सबके उत्पादक ( नृचक्षसम् ) = मनुष्यों के सब कर्मों को देखने हारे परमेश्वर की हम सब लोग ( हवामहे ) = प्रशंसा करें।
भावार्थ
भावार्थ = सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी परमेश्वर सब मनुष्यों को उनके कर्मों के अनुसार अनेक प्रकार का धन देता है जिस धन से मनुष्य अपने लोक और परलोक को सुधार सकते हैं। ऐसे धन को मद्य, मांस-सेवन और व्यभिचारादि पाप कर्मों में कभी नहीं लगाना चाहिये, किन्तु धार्मिक कामों में ही खर्च करना चाहिये, जिससे मनुष्य का यह लोक और परलोक सुधर सके।
विषय
इस मन्त्र में सविता शब्द से ईश्वर और सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्या ! यथा वयं नृचक्षसं वसोः चित्रस्य राधसः विभक्तारं सवितारं परमेश्वरं सूर्य्यं वा हवामहे आददीमहि तथा एव यूयम् अपि आदत्त॥७॥
पदार्थ
हे (मनुष्या)=मनुष्य लोगों! (यथा)=जैसे, (वयम्)=हम लोग, (नृचक्षसम्) नृषु चक्षा अन्तर्य्यामिरूपेण विज्ञानप्रकाशो वा यस्य तम्= मनुष्यों में अन्तर्यामिरूप से विज्ञान प्रकाश करने वाले, (वसोः) वस्तुजातस्य=पदार्थों से उत्पन्न हुए, (चित्रस्य) अद्भुतस्य= अद्भुत का, (राधसः) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यादिधनस्य च=विद्या सुवर्ण वा चक्रवर्ति राज्य आदि धन के यथायोग्य, (विभक्तारम्) जीवेभ्यस्तत्तत्कर्मानुकूलफलविभाजितारम् विविधपदार्थानां पृथक् पृथक् कर्त्तारं वा=जीवों के कर्म के अनुकूल विभाग से फल देने वाले, (सवितारम्) उत्पादकमैश्वर्य्यहेतुं वा=जगत् के उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर (वा)=अथवा, (सूर्य्यम्)=सूर्य्य, (हवामहे-आददीमहि) आदद्मः=स्वीकार करें, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (यूयम्)=तुम, (अपि)=भी (आदत्त)=उनको ग्रहण करो॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को उचित है कि जिससे परमेश्वर सर्वशक्तिपन वा सर्वज्ञता से सब जगत् की रचना करके सब जीवों को उसके कर्मों के अनुसार सुख दुःखरूप फल को देता और जैसे सूर्य्यलोक अपने ताप वा छेदनशक्ति से मूर्त्तिमान् द्रव्यों का विभाग और प्रकाश करता है, इससे तुम भी सबको न्यायपूर्वक दण्ड वा सुख और यथायोग्य व्यवहार में चला के विद्यादि शुभ गुणों को प्राप्त कराया करो॥७॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणियां- (1) महर्षि ने इस विषय में सूर्य और परमेश्वर परक अर्थों का वर्णन किया है। डा रामनाथ वेदालंकार ने दोनों अर्थ अलग-अलग किये (पृष्ठ-186 वेदभाष्यकारों की वेदार्थप्रक्रियाएँ।)
(2)- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्या) मनुष्य लोगों! (यथा) जैसे (वयम्) हम लोग (नृचक्षसम्) मनुष्यों में अन्तर्यामिरूप से विज्ञान प्रकाश करने वाले, (वसोः) पदार्थों से उत्पन्न हुए, (चित्रस्य) अद्भुत, (राधसः) विद्या सुवर्ण वा चक्रवर्ति राज्य आदि धन के यथायोग्य (विभक्तारम्) जीवों के कर्म के अनुकूल विभाग से फल देने वाले, (सवितारम्) जगत् के उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर (वा) अथवा (सूर्य्यम्) सूर्य्य को (हवामहे) स्वीकार करते हैं, (तथा) वैसे (एव) ही, (यूयम्) तुम (अपि) भी (आदत्त) उनको ग्रहण करो॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (विभक्तारम्) जीवेभ्यस्तत्तत्कर्मानुकूलफलविभाजितारम्। विविधपदार्थानां पृथक् पृथक् कर्त्तारं वा (हवामहे) आदद्मः। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपः स्थाने श्लोरभावः। (वसोः) वस्तुजातस्य (चित्रस्य) अद्भुतस्य (राधसः) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यादिधनस्य च (सवितारम्) उत्पादकमैश्वर्य्यहेतुं वा (नृचक्षसम्) नृषु चक्षा अन्तर्य्यामिरूपेण विज्ञानप्रकाशो वा यस्य तम्॥७॥
विषयः- अथ सवितृशब्देनेश्वरसूर्य्यगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- हे मनुष्या ! यथा वयं नृचक्षसं वसोश्चित्रस्य राधसो विभक्तारं सवितारं परमेश्वरं सूर्य्यं वा हवामहे आददीमहि तथैव यूयमप्यादत्त॥७॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्यतः परमेश्वरः सर्वशक्तिमत्त्वसर्वज्ञत्वाभ्यां सर्वजगद्रचनं कृत्वा सर्वेभ्यः कर्मफलप्रदानं करोति। सूर्य्योऽग्निमयत्वछेदकत्वाभ्यां मूर्त्तद्रव्याणां विभागप्रकाशौ करोति, तस्मादेतौ सर्वदा युक्त्योपचर्य्यौ॥७॥
विषय
धन का विभाग
पदार्थ
१. गतमन्त्र में कहा था कि प्रभु प्रजाओं का पतन नहीं होने देते । उसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि वे प्रभु धन का उचित विभाग करते हैं और वस्तुतः यह धन का विभाग ही प्रजा की रक्षा करनेवाला होता है । जिस प्रकार शरीर में रुधिर के किसी एक स्थान में एकत्र होने से शरीर विकृत हो जाता है , उसी प्रकार समाज के शरीर में भी धन के कुछ स्थानों पर केन्द्रित होने पर विकार आ जाता है । इसलिए कहते हैं कि (विभक्तारम्) - धन का उचित विभाग करनेवाले उस प्रभु को (हवामहे) - हम पुकारते हैं जो प्रभु (वसोः) - निवास के लिए आवश्यक धन को देनेवाले हैं । कैसे धन को? (चित्रस्य) - [चित्+र] जो धन हमें ज्ञान का देनेवाला है , न कि हमारे ज्ञान को नष्ट करनेवाला है ; तथा (राधसः) - जो धन हमारे कर्मों को सिद्ध करनेवाला है? (सवितारम्) - उस प्रभु को जो सम्पूर्ण धनों को उत्पन्न करनेवाले हैं और उन्हें सर्वत्र प्रेरित करनेवाले हैं तथा (नृचक्षसम्) - [नॄन् चष्टे - look after] सभी लोकों का पालन करनेवाले हैं । जैसे एक माता सभी बच्चों का ध्यान करती है , वे प्रभु भी सभी की माता हैं और सबके पालन - पोषण का ध्यान करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - सबके पालक उस प्रभु की हम प्रार्थना करें । वे प्रभु ही सब धनों के उत्पादक व विभाजक हैं । प्रभु से दिया गया धन हमारे निवास को उत्तम बनाता है , हमारे ज्ञान के अनुकूल होता है तथा कार्यों का साधक है ।
विषय
चित्रवसु के विभक्ता का स्मरण ।
भावार्थ
( वसोः ) वास या जीवन निर्वाह करने योग्य ( चित्रस्य ) विचित्र, अद्भुत, नाना प्रकार के (राधसः) ऐश्वर्य के (विभक्तारम्) विभाग करने वाले, सब को न्यायपूर्वक प्रदान करने वाले ( नृचक्षसम् ) सब मनुष्यों और जीवों के द्रष्टा, अन्तर्यामी ( सवितारम् ) सबके उत्पादक और प्रेरक के समान सर्वद्रष्टा परमेश्वर और राजा को हम ( हवामहे ) स्तुति करें, चाहें, अपना स्वामी स्वीकार करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. जसा परमेश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ असून सर्व जगाची निर्मिती करतो व सर्व जीवांना त्यांच्या कर्मानुसार सुखदुःखरूपी फळ देतो व सूर्यलोक आपल्या तापाने व छेदनशक्तीने प्रत्यक्ष द्रव्यांचे विभाजन करतो आणि प्रकाशही देतो तसा तुम्ही माणसांनी यथायोग्य व्यवहार करावा. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
We invoke and worship Savita, creator and sustainer of the universe, giver of the wonderful wealth of the world, and dispenser of the fruits of human action and endeavour and to all. He watches from within and without. All, everything, He watches.
Subject of the mantra
In this mantra, by the word “Savita” virtues of God and qualities of the Sun have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyā)=men, (yathā)=as, (vayam)=we, (nṛcakṣasam)=those who manifest in men specific knowledge as inner dweller, (vasoḥ)=created by substances, (citrasya)=amazing, (rādhasaḥ)=congruous with knowledge, gold or Chakravarti kingdom et cetera, (vibhaktāram)=providing result as per deeds of the living beings, (savitāram)=creator of the universe, (vā =in other words, (sūryyam)=the sun, (havāmahe)=we accept, (tathā)=in the same way, (eva)=only, (yūyam)=all of you, (api)=also, (ādatta)=imbibe them.
English Translation (K.K.V.)
O men! As we accept creator of the universe, God, in other words, the Sun, those who manifest in men specific knowledge as inner dweller, created by substances, amazing, congruous with knowledge, gold or Chakravarti kingdom et cetera, providing result as per deeds of the living beings, in the same way only, all of you also imbibe them.
TRANSLATOR’S NOTES-
(1)-Maharishi has described the meanings of the Sun and Parameshwar in the subject. Dr. Ramnath Vedalankar interpreted both the meanings separately (page-186 veda bhāṣyakāroṃ kī vedārtha prakriyāyeṃ) (2)-The Chakravarti state is explained in the Rigveda's mantra number (01.04.07).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now by the use of the word Savita, the attributes of God and the sun are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) O men, as we accept God who is the just distributor of the fruits of actions of the souls and whose Light of knowledge is in all human beings as their Inner most spirit and Who is the Generator of all wonderful objects and wealth in the form of wisdom, gold and righteous vast kingdom so you should also accept Him as such. (2) In the case of the sun, the meaning of the Mantra is' We accept the sun as the divider of various objects by its light, the cause of wealth and prosperity (on account of its light in which men work) and giver of light to all embodied things.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(विभक्तारम् ) जीवेभ्यः तत्तत् कर्मानुकूलं फल विभाजितारम् । = Distributor of the fruits of actions of the souls. (नृचक्षसम्) नृषु चक्षा अन्तर्यामिरूपेण विज्ञानप्रकाशो मूर्तद्रव्यप्रकाशो वा यस्य तम् ॥ (हवामहे) आदमः = We accept. (सवितारम् ) उत्पादकम् ऐश्वर्य हेतुंबा (राधसः ) विद्यासुवर्णचक्रावर्तिराज्यादिधनस्य = of the wealth of wisdom, gold and vast government etc. (वसो:) वस्तुजातस्य = of all objects.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There are Shlesha (double entendre and Upamaa (simile ) in this Mantra. As God gives the fruit of the actions of all souls being Omnipotent and Omniscient Supreme Being and Creator of the world and as the sun divides by its light the different objects and enlightens them by its piercing rays, both should be properly and wisely utilized i. e. God should be adored and proper use should be made of the heat and light of the sun.
Translator's Notes
हवामहे has been interpreted by Rishi Dayananda as आदम: or accept हु-दानादनयो: आदाने च So here the third meaning of आदान taking or accepting has been taken by the Rishi राधइति धननाम (निघ० २.१०) So wealth of all kinds (Secular and spiritual in the form of wisdom, peace and bliss) is implied here. चक्षिङ्-प्रकथने दर्शनेऽपि च = Darshana is not possible without light, hence in the case of God, it is taken in the sense of light of knowledge and in the case of the sun-the giver of light.
बंगाली (1)
পদার্থ
বিভক্তারং হবামহে বসোশ্চিত্রস্য রাধসঃ।
সবিতারং নৃচক্ষসম্।।১৩।।
(ঋগ্বেদ ১।২২।৭)
পদার্থঃ (বসোঃ) সুখের নিবাস হেতু (চিত্রস্য) আশ্চর্যস্বরূপ, (রাধসঃ) শুভ ঐশ্বর্যের (বিভক্তারম্) বণ্টনকারী, (সবিতারম্) সকলের স্রষ্টা, (নৃচক্ষসম্) মনুষ্যের সমস্ত কর্মের সাক্ষী পরমেশ্বরকে আমরা সমস্ত লোক (হবামহে) স্তুতি করি।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ সর্বজ্ঞ, সর্বান্তর্যামী পরমেশ্বর যাঁর স্তুতি সমগ্র জগৎ করে, তিনি সকল মানুষকে তাদের কর্মানুসারে অনেক প্রকারের ধন প্রদান করেন। যে ধন দ্বারা মানুষ নিজ ও পরের উপকার করতে পারে, ওই ধনকে মদ-মাংস সেবন এবং ব্যভিচারাদি পাপ কর্মে কখনো ব্যবহার করা উচিৎ নয়, বরং ধার্মিক কর্মেই ব্যয় করা উচিৎ।।১৩।।
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