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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्राणीवरुणान्यग्नाय्यः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒हेन्द्रा॒णीमुप॑ ह्वये वरुणा॒नीं स्व॒स्तये॑। अ॒ग्नायीं॒ सोम॑पीतये॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । इ॒न्द्रा॒णीम् । उप॑ । ह्व॒ये॒ । व॒रु॒णा॒नीम् । स्व॒स्तये॑ । अ॒ग्नायी॑म् । सोम॑ऽपीतये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहेन्द्राणीमुप ह्वये वरुणानीं स्वस्तये। अग्नायीं सोमपीतये॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह। इन्द्राणीम्। उप। ह्वये। वरुणानीम्। स्वस्तये। अग्नायीम्। सोमऽपीतये॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ताः कीदृश्यो देवपत्न्य इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    मनुष्या यथाहमिह स्वस्तये सोमपीतय इन्द्राणीं वरुणानीमग्नायीमिव स्त्रियमुपह्वये तथा भवद्भिरपि सर्वैरनुष्ठेयम्॥१२॥

    पदार्थः

    (इह) एतस्मिन् व्यवहारे। (इन्द्राणीम्) इन्द्रस्य सूर्य्यस्य वायोर्वा शक्तिं सामर्थ्यमिव वर्त्तमानम् (उप) उपयोगे (ह्वये) स्वीकुर्वे (वरुणानीम्) यथा वरुणस्य जलस्येयं शान्तिमाधुर्य्यादिगुणयुक्ता शक्तिस्तथाभूतम् (स्वस्तये) अविनष्टा याभिपूजिताय सुखाय। स्वस्तीत्यविनाशिनामास्तिरभिपूजितः। (निरु०३.२१) (अग्नायीम्) यथाग्नेरियं ज्वालास्ति तादृशीम्। वृषाकप्यग्नि० (अष्टा०४.१.३७) अनेन ङीप्प्रत्यय ऐकारादेशश्च। (सोमपीतये) सोमानामैश्वर्य्याणां पीतिर्भोगो यस्मिन् तस्मै। सह सुपा इति समासः। अग्नाय्यग्नेः पत्नी तस्या एषा भवति। इहेन्द्राणीमुपह्वये० सा निगदव्याख्याता। (निरु०८.३४)॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वररचितानां पदार्थानां सकाशादविनश्वरसुख- प्राप्तयेऽत्युत्तमाः स्त्रियः प्राप्तव्याः। नित्यमुद्योगेनान्योऽन्यं प्रीता विवाहं कुर्य्युः। नैव सदृशस्त्रीः पुरुषार्थं चान्तरा कस्यचित् किंचिदपि यथावत् सुखं सम्भवति॥१२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसी देवपत्नी हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे मनुष्य लोगो ! जैसे हम लोग (इह) इस व्यवहार में (स्वस्तये) अविनाशी प्रशंसनीय सुख वा (सोमपीतये) ऐश्वर्य्यों का जिसमें भोग होता है, उस कर्म के लिये जैसा (इन्द्राणीम्) सूर्य्य (वरुणानीम्) वायु वा जल और (अग्नायीम्) अग्नि की शक्ति हैं, वैसी स्त्रियों को पुरुष और पुरुषों को स्त्री लोग (उपह्वये) उपयोग के लिये स्वीकार करें, वैसे तुम भी ग्रहण करो॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को उचित है कि ईश्वर के बनाये हुए पदार्थों के आश्रय से अविनाशी निरन्तर सुख की प्राप्ति के लिये उद्योग करके परस्पर प्रसन्नतायुक्त स्त्री और पुरुष का विवाह करें, क्योंकि तुल्य स्त्री पुरुष और पुरुषार्थ के विना किसी मनुष्य को कुछ भी ठीक-ठीक सुख का सम्भव नहीं हो सकता॥१२॥

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    विषय

    फिर वे कैसी देवपत्नी हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    मनुष्या यथा अहम् इह स्वस्तये सोमपीतय इन्द्राणीं वरुणानीम् अग्नायीम् इव स्त्रियम् उप ह्वये तथा भवद्भिः अपि सर्वैः अनुष्ठेयम्॥१२॥ 

    पदार्थ

    (मनुष्या)=हे मनुष्य लोगों ! (यथा)=जैसे, (अहम्)= मैं,   (इह) एतस्मिन् व्यवहारे= इस व्यवहार में,  (स्वस्तये)=सुख के लिये, (सोमपीतये) सोमानामैश्वर्य्याणां पीतिर्भोगो यस्मिन् तस्मै=ऐश्वर्य्यों का जिसमें भोग होता है, उस कर्म के लिये जैसा, (इन्द्राणीम्) इन्द्रस्य सूर्य्यस्य वायोर्वा शक्तिं सामर्थ्यमिव वर्त्तमानम्= इन्द्र, सूर्य्य, या वायु की शक्ति के सामर्थ्य के समान है, (वरुणानीम्) यथा वरुणस्य जलस्येयं शान्तिमाधुर्य्यादिगुणयुक्ता शक्तिस्तथाभूतम्=जैसे इस वायु या जल के शान्त और माधुर्य आदि गुणों से युक्त शक्ति है, उसी प्रकार के प्राणी,  (अग्नायीम्) यथाग्नेरियं ज्वालास्ति तादृशीम्। वृषाकप्यग्नि०{वृषाकपिः(वृष+कपिः+अस्य=अग्नि का विशेषण}=अग्नि की यह ज्वाला है, (इव)=जैसे, (स्त्रियम्)=स्त्री को, (उप) उपयोगे= उपयोग के लिये, (ह्वये) स्वीकुर्वे=स्वीकार करें, (तथा)=वैसे ही, (भवद्भिः)=आपके द्वारा, (अपि)=भी, (सर्वैः)=समस्त, (अनुष्ठेयम्){अनु+स्था+ल्युट=अनुष्ठानम्=कार्य करना}=कार्य करना चाहिए॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को  ईश्वर के बनाये हुए पदार्थों की निकटता से से अविनाशी सुख की प्राप्ति के लिये अतु उत्तम स्त्रियों को प्राप्त करना चाहिए। नित्य उद्योग से परस्पर प्रसन्नतायुक्त स्त्री और पुरुष का विवाह करें। पुरुषार्थ के विना किसी मनुष्य को न ही तुल्य स्त्री मिलती है और कुछ भी ठीक-ठीक सुख का सम्भव नहीं हो सकता है॥१२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्य लोगों ! (यथा) जैसे (अहम्) मैं  (इह)  इस व्यवहार में  (स्वस्तये) सुख के लिये [और] (सोमपीतये) ऐश्वर्य्यों का जिसमें भोग होता है, उस कर्म के लिये [जो] (इन्द्राणीम्) इन्द्र, सूर्य्य, या वायु की शक्ति के सामर्थ्य के समान है और (वरुणानीम्) जैसे यह वायु या जल शान्त और माधुर्य आदि गुणों से युक्त शक्ति है, उसी प्रकार के प्राणी (अग्नायीम्)  अग्नि की इस ज्वाला को, (इव) जैसे (स्त्रियम्) स्त्री को (उप) उपयोग के लिये (ह्वये)  स्वीकार करें, (तथा) वैसे ही (भवद्भिः) आपके द्वारा (अपि) भी (सर्वैः) समस्त कार्य किये जाने चाहिएँ॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इह) एतस्मिन् व्यवहारे। (इन्द्राणीम्) इन्द्रस्य सूर्य्यस्य वायोर्वा शक्तिं सामर्थ्यमिव वर्त्तमानम् (उप) उपयोगे (ह्वये) स्वीकुर्वे (वरुणानीम्) यथा वरुणस्य जलस्येयं शान्तिमाधुर्य्यादिगुणयुक्ता शक्तिस्तथाभूतम् (स्वस्तये) अविनष्टा याभिपूजिताय सुखाय। स्वस्तीत्यविनाशिनामास्तिरभिपूजितः। (निरु०३.२१) (अग्नायीम्) यथाग्नेरियं ज्वालास्ति तादृशीम्। वृषाकप्यग्नि० (अष्टा०४.१.३७) अनेन ङीप्प्रत्यय ऐकारादेशश्च। (सोमपीतये) सोमानामैश्वर्य्याणां पीतिर्भोगो यस्मिन् तस्मै। सह सुपा इति समासः। अग्नाय्यग्नेः पत्नी तस्या एषा भवति। इहेन्द्राणीमुपह्वये० सा निगदव्याख्याता। (निरु०८.३४)॥१२॥
    विषयः- पुनस्ताः कीदृश्यो देवपत्न्य इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- मनुष्या यथाहमिह स्वस्तये सोमपीतय इन्द्राणीं वरुणानीमग्नायीमिव स्त्रियमुपह्वये तथा भवद्भिरपि सर्वैरनुष्ठेयम्॥१२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वररचितानां पदार्थानां सकाशादविनश्वरसुख- प्राप्तयेऽत्युत्तमाः स्त्रियः प्राप्तव्याः। नित्यमुद्योगेनान्योऽन्यं प्रीता विवाहं कुर्य्युः। नैव सदृशस्त्रीः पुरुषार्थं चान्तरा कस्यचित् किंचिदपि यथावत् सुखं सम्भवति॥१२॥ 

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    विषय

    इन्द्राणी - वरुणानी - अग्नायी

    पदार्थ

    १. (इह) - इस जीवन - यज्ञ में (स्वस्तये) - उत्तम स्थिति व कल्याण के लिए तथा (सोमपीतये) - सोम के पान , अर्थात् शक्ति की रक्षा के लिए (इन्द्राणीम्) - इन्द्राणी को , (वरुणानीम्) - वरुणपत्नी वरुणानी को तथा (अग्नायीम्) - अग्निपत्नी को (उपह्वये) - पुकारता हूँ । 

    २. ' इन्द्राणी' इन्द्र की पत्नी है । इन्द्र सब असुरों का संहार करनेवाला है । इस असुर - संहारिणी शक्ति को ही यहाँ ' इन्द्राणी' कहा गया है । असुरों का अग्रणी ' वृत्र' है । यह ज्ञान पर आवरण डालनेवाला काम ही है । ' आवृतं ज्ञानमेतेन' । इस काम को प्रचण्ड ज्ञानाग्नि ही दग्ध करती है एवं ज्ञानाग्नि की कोशभूत यह बुद्धि ही इन्द्राणी है । 

    ३. मन में किसी प्रकार के द्वेषादि मलिन भावों को न आने देनेवाली वरुणानी है । यह अपने को व्रतों के बन्धन में बाँधकर द्वेषादि से अपने को शून्य बनाती है । [४] ' अग्नायी' अग्निपत्नी है । यही जठराग्नि है । यह दीप्त रहकर शरीरों के स्वास्थ्य का कारण होती है । इस प्रकार इन देवपत्नियों से हमारी स्थिति उत्तम तो होती ही है , साथ ही इनकी कृपा से शरीर में सोम का रक्षण भी होता है । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - इन्द्राणी , वरुणानी व अग्नायी को हम स्वस्ति व सोमपीति के लिए पुकारते हैं । 

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    विषय

    इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नायी, तीन शक्तियों का वर्णन । पक्षान्तर में गृहपत्नी का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( इन्द्राणीम् ) इन्द्र, ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता पुरुष की सूर्य वायु के समान पालक और शत्रुसंहारक शक्ति को और (वरुणानीम् ) जल की शान्ति, शीतलता, मधुरता, स्नेह आदि गुग से युक्त सर्वश्रेष्ठ स्वयंवृत, एवं दुष्टों के वारक सेनापति की पालक नीति को और ( अग्नायीम् ) अग्नि की भस्म कर डालने वाली शस्त्र शक्ति को ( इह ) यहां (सोमपीतये ) ऐश्वर्यों से पूर्ण प्राप्ति और रक्षा करने के लिये ( उपह्वये ) प्राप्त करूं । गृहस्थ पक्ष में—उत्तम गुणों के प्राप्त करने के लिये इस गृहस्थकार्य में भी सूर्य के समान तेजस्विनी, जल के समान मधुर गुण वाली, स्नेहवती, और अग्नि के समान पापनाशक स्त्रियों को विवाह में स्वीकार करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार व उपमालंकार आहेत. ईश्वराने निर्माण केलेल्या पदार्थांच्या आश्रयाचे अविनाशी व निरंतर सुखाच्या प्राप्तीसाठी उद्योग करून परस्पर प्रसन्नतेने स्त्री-पुरुषांनी विवाह करावा. कारण तुल्य स्त्री-पुरुष व पुरुषार्थ याशिवाय कोणत्याही माणसाला कोणतेही सुख मिळणे शक्य नाही. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    I invoke Indrani, light of the sun, Varunani, coolness of water and soothing softness of air, and Agnayi, heat of fire and warmth to bless our homes and women with peace and progress, protection and prosperity for the sake of happiness and well-being.

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    Subject of the mantra

    How are those devapatnī (powers of the deities), this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=men, (yathā)=as, (aham)=I, (iha)=indulge in this practice, (svastaye)=for the deeds in which majesties are enjoyed, [aura]=and, (somapītaye)=for the karma in which majesties are enjoyed [jo]=which, (indrāṇīm)=is equal to capability of power of indra, sun or air, [aura]=and, (varuṇānīm)=as this air or water is having power with qualities like calmness and sweetness, (agnāyīm) =this flame of fire is, (iva)=as, (striyam)= to woman, (upa)=for use, (hvaye)=accept, (tathā)=in the same way, (bhavadbhiḥ)=by you, (api)=also, (sarvaiḥ)= all, [kᾱrya kiye jane chᾱuień]= works must be done.

    English Translation (K.K.V.)

    O men! Just as I indulge in this practice for the sake of happiness and the majesties in which I enjoy, for that action is equal to the power of the capability of Indra, Surya, or Vayu and as it is wind or water, calm and melodious, et cetera. The same type of creatures accept this flame of fire, just as a woman is accepted for marriage, similarly all work should be done by you.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile in this mantra. Humans should get the best women for getting imperishable happiness from the closeness of God's created things. Men and women should marry with each other happily with regular efforts. Without effort, neither a man gets a woman of his liking and nothing can it be possible for proper happiness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of those devapatnis (wives of learned persons) is taught in the next Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I-a householder accept as my wife for everlasting and admirable happiness in this domestic life, a lady who possesses the power of the sun or the air, who is endowed with the power of the water in the form of peace and sweetness and who is full of the power of the fire. I accept her for the enjoyment of prosperity and wealth ( material as well as spiritual). You should also do likewise.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्राणीम् ) इन्द्रस्य सूर्यस्य वायोर्वाशक्ति सामथ्र्यम् इव वर्तमानाम् । = Possessing the power of the sun or the air. (वरुणानीम् ) वरुणस्य जलस्य इयं शान्तिमाधुर्यादिगुणयुक्ता शक्तिस्तथा भूताम् । = Endowed with the power of the water in the form of peace and sweetness. (अग्नायीम्) यथा अग्ने: इयं ज्वाला अस्ति तादृशीम् - Like the flame of the fire burning all impurity. (सोमपीतये) सोमानाम् ऐश्वर्याणां पीतिर्भोगः यस्मिन् तस्मै = For the enjoyment of all wealth. (मही) महागुणविशिष्टा = Great. (धौ:) प्रकाशमयो विद्युत् सूर्यादिलोक समूहः = Shining worlds or objects like electricity and the solar system. (पृथिवी ) अप्रकाशगुणानां पृथिव्यादीनां समूहः = Representing worlds or objects without light. (यज्ञम् ) शिल्पविद्यामयम् = Yajna in the form of arts and crafts etz. भरीमभिः धारणपोषणकरैर्गुणैः = With the attributes of nourishment and sustenance. भृञ्-धारणपोषणयोः (जुः) इति धातोः मनिन्प्रत्ययः बहुलं छन्दसीतीडांगमः ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is implied simile used in this Mantra called बाचक्लुप्तोपमालंकार Men should obtain most virtuous wives for getting abiding happiness from the objects created by God. Men and women should marry each other, having mutual love and being industrious. It is not possible for any one to get happiness without wives of similar nature and exertion.

    Translator's Notes

    For the meanings of the word Indra as the sun and the air, we have already cited the authorities as the following- एष एव इन्द्रः य एष (सूर्य:) तपति । (शतपथ १.६. ४.१८)। इन्द्रः सूर्य इति सायणाचार्योऽपि (ताण्ड्य १४.२.५ भाष्ये ) without light. Men should enjoy perfect happiness deriving all benefit out of them by utilizing them properly and industriously.

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