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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 13
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    म॒ही द्यौः पृ॑थि॒वी च॑ न इ॒मं य॒ज्ञं मि॑मिक्षताम्। पि॒पृ॒तां नो॒ भरी॑मभिः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒ही । द्यौः । पृ॒थि॒वी । च॒ । नः॒ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । मि॒मि॒क्ष॒ता॒म् । पि॒पृ॒ताम् । नः॒ । भरी॑मऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मही द्यौः पृथिवी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मही। द्यौः। पृथिवी। च। नः। इमम्। यज्ञम्। मिमिक्षताम्। पिपृताम्। नः। भरीमऽभिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 13
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र भूम्यग्नी मुख्ये साधने स्त इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे उपदेश्योपदेष्टारौ युवां ये मही द्यौः पृथिवी च भरीमभिर्न इमं यज्ञं नोऽस्मांश्च पिपृतामङ्गैः सुखेन प्रपिपूर्त्तस्ताभ्यामिमं यज्ञं मिमिक्षतां पिपृतां च॥१३॥

    पदार्थः

    (मही) महागुणविशिष्टा (द्यौः) प्रकाशमयो विद्युत् सूर्य्यादिलोकसमूहः (पृथिवी) अप्रकाशगुणानां पृथिव्यादीनां समूहः (च) समुच्चये (नः) अस्मभ्यम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (यज्ञम्) शिल्पविद्यामयम् (मिमिक्षताम्) सेक्तुमिच्छताम् (पिपृताम्) प्रपिपूर्त्तः। अत्र लडर्थे लोट्। (नः) अस्मान् (भरीमभिः) धारणपोषणकरैर्गुणैः। ‘भृञ्’धातोर्मनिन् प्रत्ययो बहुलं छन्दसि इतीडागमः॥१३॥

    भावार्थः

    द्यौरिति प्रकाशवतां लोकानामुपलक्षणं पृथिवीत्यप्रकाशवतां च। मनुष्यैरेताभ्यां प्रयत्नेन सर्वानुपकारान् गृहीत्वा पूर्णानि सुखानि सम्पादनीयानि॥१३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    शिल्पविद्या में भूमि और अग्नि मुख्य साधन हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे उपदेश के करने और सुननेवाले मनुष्यो ! तुम दोनों जो (मही) बड़े-बड़े गुणवाले (द्यौः) प्रकाशमय बिजुली, सूर्य्य आदि और (पृथिवी) अप्रकाशवाले पृथिवी आदि लोकों का समूह (भरीमभिः) धारण और पुष्टि करनेवाले गुणों से (नः) हमारे (इमम्) इस (यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ (च) और (नः) हम लोगों को (पिपृताम्) सुख के साथ अङ्गों से अच्छी प्रकार पूर्ण करते हैं, वे (इमम्) इस (यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ को (मिमिक्षताम्) सिद्ध करने की इच्छा करो तथा (पिपृताम्) उन्हीं से अच्छी प्रकार सुखों को परिपूर्ण करो॥१३॥

    भावार्थ

    द्यौः यह नाम प्रकाशमान लोकों का उपलक्षण अर्थात् जो जिसका नाम उच्चारण किया हो, वह उसके समतुल्य सब पदार्थों के ग्रहण करने में होता है तथा पृथिवी यह विना प्रकाशवाले लोकों का है। मनुष्यों को इन से प्रयत्न के साथ सब उपकारों को ग्रहण करके उत्तम-उत्तम सुखों को सिद्ध करना चाहिये॥१३॥

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    विषय

    शिल्पविद्या में भूमि और अग्नि मुख्य साधन हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे उपदेश्योपदेष्टारौ युवां ये मही द्यौः पृथिवी च भरीमभिः न इमम् यज्ञं नःअस्मान् च पिपृताम् अङ्गैः सुखेन प्रपिपूर्त्तः ताभ्याम् इमं यज्ञं मिमिक्षतां पिपृतां च॥१३॥

    पदार्थ

    हे (उपदेश्योपदेष्टारौ)=हे उपदेश के प्रदान करने और सुननेवाले मनुष्यो ! (युवाम्)=तुम दोनों, (ये)=जो, (मही) महागुणविशिष्टा=बड़े-बड़े  गुणवाले, (द्यौः) प्रकाशमयो विद्युत् सूर्य्यादिलोकसमूहः=प्रकाशमय बिजली, सूर्य्य आदि, (पृथिवी) अप्रकाशगुणानां पृथिव्यादीनां समूहः=अप्रकाशवाले पृथिवी आदि लोकों का समूह  (च) समुच्चये=और (भरीमभिः) धारणपोषणकरैर्गुणैः=धारण और पुष्टि करनेवाले गुणों से, (नः) असमभ्यम्=हमारे लिये, (इमम्)=इस, (यज्ञम्) शिल्पविद्यामयम्= शिल्पविद्यामय यज्ञ को, (नः-अस्मान्)= हम लोगों को, (च)=भी, (पिपृताम्)-प्रपिपूर्त्तः=सुख के साथ अङ्गों से अच्छी प्रकार पूर्ण करते हैं, वे (अङ्गैः)=अङ्गों से, (सुखेन)=सुख से, (प्रपिपूर्त्तः)=सुख के साथ अङ्गों से अच्छी प्रकार पूर्ण करते हैं, (ताभ्याम्)=उन दोनों को, (इमम्) प्रत्यक्षम्=इस, (यज्ञम्) शिल्पविद्यामयम्= शिल्पविद्यामय यज्ञ, (मिमिक्षताम्) सेक्तुमिच्छताम्= सिद्ध करने की इच्छा करो, (पिपृताम्) प्रपिपूर्त्तः= सुख के साथ अङ्गों से अच्छी प्रकार पूर्ण करते हैं, (च) समुच्चये=और ॥१३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    द्यौः यह नाम प्रकाशमान लोकों का उपलक्षण  है अर्थात् जो जिसका नाम उच्चारण किया हो, वह उसके समतुल्य सब पदार्थों के ग्रहण करने में होता है। इसी प्रकार पृथिवी यह विना प्रकाशवाले लोकों का है। मनुष्यों को इन से प्रयत्न के साथ सब उपकारों को ग्रहण करके उत्तम-उत्तम सुखों को सिद्ध करना चाहिये॥१३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (उपदेश्योपदेष्टारौ) उपदेश के प्रदान करने और सुननेवाले मनुष्यो ! (युवाम्) तुम दोनों (ये) जो (मही) बड़े-बड़े  गुणवाले हैं, [उन] (द्यौः) प्रकाशमय बिजली, सूर्य्य आदि (च) और (पृथिवी) अप्रकाशवाले पृथिवी आदि लोकों के समूह को (भरीमभिः) धारण और पुष्टि करनेवाले गुणों से (नः) हमारे लिये (इमम्) इस (यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ को, (नः) हम लोगों को (च) भी (पिपृताम्) सुख के साथ अङ्गों से अच्छी  प्रकार पूर्ण करते हैं। (ताभ्याम्) उन दोनों के द्वारा (इमम्) इस (यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ की (मिमिक्षताम्) सिद्धि किये जाने की इच्छा करो (च) और (पिपृताम्) उन्हीं से सुख के साथ अच्छी प्रकार पूर्ण करो ॥१३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मही) महागुणविशिष्टा (द्यौः) प्रकाशमयो विद्युत् सूर्य्यादिलोकसमूहः (पृथिवी) अप्रकाशगुणानां पृथिव्यादीनां समूहः (च) समुच्चये (नः) अस्मभ्यम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (यज्ञम्) शिल्पविद्यामयम् (मिमिक्षताम्) सेक्तुमिच्छताम् (पिपृताम्) प्रपिपूर्त्तः। अत्र लडर्थे लोट्। (नः) अस्मान् (भरीमभिः) धारणपोषणकरैर्गुणैः। 'भृञ्'धातोर्मनिन् प्रत्ययो बहुलं छन्दसि इतीडागमः॥१३॥
    विषयः- अत्र भूम्यग्नी मुख्ये साधने स्त इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे उपदेश्योपदेष्टारौ युवां ये मही द्यौः पृथिवी च भरीमभिर्न इमं यज्ञं नोऽस्मांश्च पिपृतामङ्गैः सुखेन प्रपिपूर्त्तस्ताभ्यामिमं यज्ञं मिमिक्षतां पिपृतां च॥१३॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- द्यौरिति प्रकाशवतां लोकानामुपलक्षणं पृथिवीत्यप्रकाशवतां च। मनुष्यैरेताभ्यां प्रयत्नेन सर्वानुपकारान् गृहीत्वा पूर्णानि सुखानि सम्पादनीयानि॥१३॥ 

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    विषय

    द्यौः , पृथिवी

    पदार्थ

    १. शरीर में मस्तिष्क ही द्युलोक है और यह अन्नमयकोश ही पृथिवी है । (मही द्यौः) - ज्ञान से परिपूर्ण यह महत्त्वपूर्ण मस्तिष्क (च) - तथा (मही) - महनीय (पृथिवी) - शरीर स्वास्थ्य व बल के कारण उचित प्रभाव को डालनेवाला शरीर - ये दोनों (नः) - हमारे (इमम्) - इस जीवन - यज्ञ को (मिमिक्षताम्) - सुख से सिक्त कर दें । जीवन को सुखी बनाने के लिए आवश्यक है कि मस्तिष्क भी ठीक हो तथा शरीर भी पूर्ण स्वस्थ हो । 

    २. ये महनीय मस्तिष्क व शरीर (नः) - हमें (भरीमभिः) - सब प्रकार की शक्तियों के भरण - पोषण से (पिपृताम्) - पालित व पूरित करें । इनके द्वारा हम अपना भरण - पोषण ठीक से कर सकें । 

    भावार्थ

    भावार्थ - सब प्रकार की शक्तियों के ठीक विकास के लिए शरीर व मस्तिष्क दोनों का स्वस्थ होना आवश्यक है । 

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    विषय

    राजा प्रजा का व्यवहार

    भावार्थ

    ( मही द्यौः ) बड़े विशाल आकाश या तेजस्वी सूर्य और ( पृथिवी च ) पृथिवी के समान तेजस्वी और सर्वाश्रय राजा और प्रजागण मिलकर ( नः ) हमारे ( इमं यज्ञम् ) इस प्रजा-पालन रूप यज्ञ को अथवा प्रजापालक राजा को ( मिमिक्षताम् ) अभिषेक करें, उसको दृढ़ करें । और वे दोनों ( भरीमभिः ) भरण पोष करने वाले साधनों से (नः पिपृताम्) हमें प्रजागण को पालन करें। गृहस्थ पक्ष में—विद्युत् सूर्यादि के समान तेजस्वी पुरुष पृथिवी के समान बीजवपन के योग्य स्त्री दोनों मिल कर प्रजोत्पादन रूप यज्ञ का सेवन करें, निषेक आदि कार्य करें। और प्रजाओं का अन्नों से पोषण करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ‘द्यौ’ हे नाव प्रकाशमान असणाऱ्या गोलाचे उपलक्षण आहे. अर्थात ज्याचे उच्चारण केलेले असेल त्याच्यासारख्या सर्व पदार्थांचे असते. तसेच ‘पृथ्वी’ ही प्रकाशहीन गोलाचे नाव आहे. माणसांनी उपयोग करून घेऊन सुख मिळविले पाहिजे. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May the high heavens with their light and energy, and the dark green earths with their sustenance and gravitation feed and accomplish this holy scientific yajna of ours and, with their support and nourishment, bless us with fulfilment.

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    Subject of the mantra

    The earth and fire are chief means of yajan to be performed with the knowledge of manual skill, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (upadeśyopadeṣṭārau)=providers of sermons and listeners, (yuvām)=both of you, (ye)=which, (mahī)=of great qualities, (dyauḥ)=luminous electricity, sun etc. [una]=those, (ca)=and, (pṛthivī) =to group of regions like un-luminous earth etc. (bharīmabhiḥ)=by qualities of holding and nourishing, (naḥ)=for us, (imam)=this, (yajñam)=yajan to be performed with manual skill-knowledge, (naḥ)=for us, (ca)= as well, (pipṛtām)=with happiness, they complete well by organs, (aṅgaiḥ)=by organs, (sukhena)=with pleasure, (prapipūrttaḥ)=complete well, (tābhyām)=by both of them, (imam)=this, (yajñam)=of this yajan to be performed with knowledge of manual skill, (mimikṣatām)=desire for accomplishing, (ca)=and, (pipṛtām)=complete well with their pleasure only.

    English Translation (K.K.V.)

    O men who give and listen the teachings! Both of you who are of great virtues, hold and confirm those luminous lightning, the Sun etc. and the group of the unlighted earth etc., make this yajan to be performed with knowledge of manual skill for us as well with happiness, they complete well by organs. Wish for the accomplishment of this yajan with knowledge of manual skill by both of them and complete it well with happiness by them.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    This name “dyauḥ” is a characteristic of the luminous worlds, that is, the one whose name is pronounced, it is in the reception of all the substances equivalent to it. Similarly, the earth belongs to the worlds without light. Human beings should attain all the help with effort from these and accomplish for themselves to the best of happiness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The earth and fire are the prominent means is taught in the thirteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O preachers and the persons to be preached, you should try to blend or make proper use of the shining objects like electricity and the solar world and the earth (representing worlds without light) which with their nourishing qualities fill our Yajna in the form of the activities of arts, crafts and industries with happiness and pleasure. The word द्यौ: (Dyauh) used is the Mantra stands for all shining worlds and the word पृथ्वी (Prithvi) for the worlds then use the aero planes in the region of the air (middle region). They take and make proper use of the sap full of admirable pure water.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विप्राः) मेधाविनः = Wise men. (घृतवत् ) घृतं प्रशस्तं जलं विद्यते यस्मिन् तत् प्रशंसार्थेमतुप् । Full of good water. (रिहन्ति) आददते श्लाघन्ते वा = Accept or praise. (गन्धर्वस्य) यः गां पृथिवीं धरति स गन्धर्वो वातः तस्य वातो गन्धर्वस्तस्यापो अप्सरसः (शतपथ ९.३३.१० ) (पदे) सर्वत्र प्राप्तेऽन्तरिक्षे । = In the region of the air. (धीतिभिः) धारणाकर्षणादिभिर्गुणैः ॥ = By the power of upholding and the attracting.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Learned persons or scientists should build aero planes and other conveyances with the earth and other elements and by the combination and use of the water and air in the machines, should travel on earth, in the ocean and sky.

    Translator's Notes

    घृतमित्युदकनाम ( निघ० १.१२) = Water.रिहन्ति-आददते, श्लाघन्ते । रिह् - कत्थनयुद्ध निन्दा हिंसा ssदानेषु || (पदे) सर्वत्र प्राप्तेऽन्तरिक्षे = In the middle region. पद-तौ गतेस्त्रयोऽर्थाः - ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थग्रहणम् ||

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