ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 20
तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः॑। दि॒वी॑व॒ चक्षु॒रात॑तम्॥
स्वर सहित पद पाठतत् । विष्णोः॑ । प॒र॒मम् । प॒दम् । सदा॑ । प॒श्य॒न्ति॒ । सू॒रयः॑ । दि॒विऽइ॑व । चक्षुः॑ । आऽत॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥
स्वर रहित पद पाठतत्। विष्णोः। परमम्। पदम्। सदा। पश्यन्ति। सूरयः। दिविऽइव। चक्षुः। आऽततम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 20
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
तद् ब्रह्म कीदृशमित्युपदिश्यते।
अन्वयः
सूरयो विद्वांसो दिव्याततं चक्षुरिव यद्विष्णोराततं परमं पदमस्ति तत् स्वात्मनि सदा पश्यन्ति॥२०॥
पदार्थः
(तत्) उक्तं वक्ष्यमाणं वा (विष्णोः) व्यापकस्यानन्दस्वरूपस्य (परमम्) सर्वोत्कृष्टम् (पदम्) अन्वेष्यं ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं वा (सदा) सर्वस्मिन् काले (पश्यन्ति) सम्प्रेक्षन्ते (सूरयः) धार्मिका मेधाविनः पुरुषार्थयुक्ता विद्वांसः। सूरिरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) अत्र सूङः क्रिः। (उणा०४.६४) अनेन ‘सूङ’ धातोः क्रिः प्रत्ययः। (दिवीव) यथा सूर्यादिप्रकाशे विमलेन ज्ञानेन। स्वात्मनि वा (चक्षुः) चष्टे येन तन्नेत्रम्। चक्षेः शिच्च। (उणा०२.११५) अनेन ‘चक्षे’ रुसिप्रत्ययः शिच्च। (आततम्) समन्तात् ततं विस्तृतम्॥२०॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा प्राणिनः सूर्यप्रकाशे शुद्धेन चक्षुषा मूर्त्तद्रव्याणि पश्यन्ति, तथैव विद्वांसो विमलेन ज्ञानेन विद्यासुविचारयुक्ते शुद्धे स्वात्मनि जगदीश्वरस्य सर्वानन्दयुक्तं प्राप्तुमर्हं मोक्षाख्यं पदं दृष्ट्वा प्राप्नुवन्ति। नैतत्प्राप्त्या विना कश्चित्सर्वाणि सुखानि प्राप्तुमर्हति तस्मादेतत्प्राप्तौ सर्वैः सर्वदा प्रयत्नोऽनुविधेय इति। विलसनाख्येन ‘परमं पदम्’ इत्यस्यार्थो हि स्वर्गो भवितुमशक्य इति भ्रान्त्योक्तत्वान्मिथ्यार्थोऽस्ति, कुतः’ परमस्य पदस्य स्वर्गवाचकत्वादिति॥२०॥
विषयः
वेदविषयविचार:
व्याख्यानम्
अस्यायमर्थः—यत् ( विष्णोः ) व्यापकस्य परमेश्वरस्य, ( परमम् ) प्रकृष्टानन्दस्वरूपं, ( पदम् ) पदनीयं सर्वोत्तमोपायैर्मनुष्यैः प्रापणीयं मोक्षाख्यमस्ति, तत् ( सूरयः ) विद्वांसः सदा सर्वेषु कालेषु पश्यन्ति, कीदृशं तत्? ( आततम् ) आसमन्तात्ततं विस्तृतं यद्देशकालवस्तुपरिच्छेदरहितमस्ति, अतः सर्वैः सर्वत्र तदुपलभ्यते, तस्य ब्रह्मस्वरूपस्य विभुत्वात्। कस्यां किमिव? ( दिवीव चक्षुराततम् ) दिवि मार्त्तण्डप्रकाशे नेत्रदृष्टेर्व्याप्तिर्यथा भवति तथैव तत्पदं ब्रह्मापि वर्त्तते, मोक्षस्य च सर्वस्मादधिकोत्कृष्टत्वात् तदेव द्रष्टुं प्राप्तुमिच्छन्ति। अतो वेदा विशेषेण तस्यैव प्रतिपादनं कुर्वन्ति।
हिन्दी (7)
विषय
वह ब्रह्म कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
(सूरयः) धार्मिक बुद्धिमान् पुरुषार्थी विद्वान् लोग (दिवि) सूर्य आदि के प्रकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) व्यापक आनन्दस्वरूप परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) चाहने जानने और प्राप्त होने योग्य उक्त वा वक्ष्यमाण पद हैं (तत्) उस को (सदा) सब काल में विमल शुद्ध ज्ञान के द्वारा अपने आत्मा में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्राणी सूर्य्य के प्रकाश में शुद्ध नेत्रों से मूर्त्तिमान् पदार्थों को देखते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग निर्मल विज्ञान से विद्या वा श्रेष्ठ विचारयुक्त शुद्ध अपने आत्मा में जगदीश्वर को सब आनन्दों से युक्त और प्राप्त होने योग्य मोक्ष पद को देखकर प्राप्त होते हैं। इस की प्राप्ति के विना कोई मनुष्य सब सुखों को प्राप्त होने में समर्थ नहीं हो सकता। इस से इसकी प्राप्ति के निमित्त सब मनुष्यों को निरन्तर यत्न करना चाहिये। इस मन्त्र में परमम् पदम् इन पदों के अर्थ में यूरोपियन विलसन साहब ने कहा है कि इन का अर्थ स्वर्ग नहीं हो सकता, यह उनकी भ्रान्ति है, क्योंकि परमपद का अर्थ स्वर्ग ही है॥२०॥
पदार्थ
पदार्थ = ( तत् विष्णो: ) = उस सर्वव्यापक परमेश्वर के ( परमम् पदम् ) = श्रेष्ठ स्वरूप को ( सूरयः ) = विद्वान् लोग सदा ( पश्यन्ति ) = सदा देखते हैं ( दिवि इव ) = जैसे सब लोग द्युलोक में ( आततम् ) = सर्वत्र व्याप्त ( चक्षु ) = सूर्य को देखते हैं।
भावार्थ
भावार्थ = उस सर्वव्यापक परमात्मा के सर्वोत्तम स्वरूप को, ज्ञानी महात्मा लोग सदा प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं, जैसे आकाश में सर्वत्र विस्तार पाए हुए सूर्य को सब लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। वैसे ही महानुभाव महात्मा लोग अपने हृदय में उस परमात्मा को प्रत्यक्ष देखते हैं ।
विषय
वह ब्रह्म कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सूरयः विद्वांसः दिवि आततं चक्षुः इव यत् विष्णोः आततं परमं पदम् अस्ति तत् स्व आत्मनि सदा पश्यन्ति॥२०॥
पदार्थ
(सूरयः) धार्मिका मेधाविनः पुरुषार्थयुक्ता विद्वांसः (विद्वांसः)=धार्मिक, बुद्धिमान्, पुरुषार्थी, विद्वान् लोग, (दिवि) सूर्यादिप्रकाशे विमलेन ज्ञानेन। स्वात्मनि वा =सूर्य आदि के प्रकाश में, (आततम्) समन्तात् ततं विस्तृतम्= चारों ओर फैले हुए, (चक्षुः) चष्टे येन तन्नेत्रम्=नेत्रों के (इव)=समान समान, (यत्)=जो, (विष्णोः) व्यापकस्यानन्दस्वरूपस्य=व्यापक आनन्दस्वरूप परमेश्वर का, (आततम्) समन्तात् ततं विस्तृतम्=चारों ओर फैले हुए (परमम्) सर्वोत्कृष्टम्=सर्वोत्कृष्ट, (पदम्) अन्वेष्यं ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं वा=खोजने, जानने और प्राप्त होने योग्य, (अस्ति)=है, (तत्)=उसको, (स्व)=अपने, (आत्मनि)=आत्मा में, (सदा) सर्वस्मिन् काले= सब काल में, (पश्यन्ति) सम्प्रेक्षन्ते= देखते हैं॥२०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्राणी सूर्य के प्रकाश से शुद्ध नेत्रों से मूर्त्तिमान् पदार्थों को देखते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग निर्मल ज्ञान, विद्या और अच्छे विचारों से युक्त अपने शुद्ध आत्मा में जगदीश्वर के सब आनन्दों से युक्त और प्राप्त होने योग्य मोक्ष पद को देखकर प्राप्त होते हैं। इस की प्राप्ति के विना कोई मनुष्य सब सुखों को प्राप्त होने में समर्थ नहीं हो सकता है। इसलिये इसकी प्राप्ति के योग्य होने के लिये सब मनुष्यों को सदा प्रयत्न करना चाहिये। इस मन्त्र में परमम् पदम् इन पदों के अर्थ में यूरोपियन विलसन साहब ने कहा है कि इन का अर्थ स्वर्ग नहीं हो सकता, यह उनकी भ्रान्ति है, क्योंकि परमपद का अर्थ स्वर्ग ही है॥२०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(सूरयः) धार्मिक बुद्धिमान् पुरुषार्थी विद्वान् लोग, (दिवि) सूर्य आदि के प्रकाश में (आततम्) चारों ओर फैले हुए (चक्षुः) नेत्रों के (इव) समान (यत्) जो (विष्णोः) व्यापक आनन्दस्वरूप परमेश्वर का (आततम्) चारों ओर फैले हुए (परमम्) सर्वोत्कृष्ट (पदम्) खोजने, जानने और प्राप्त होने योग्य (अस्ति) है, (तत्) उसको (स्व) अपने (आत्मनि) आत्मा में (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तत्) उक्तं वक्ष्यमाणं वा (विष्णोः) व्यापकस्यानन्दस्वरूपस्य (परमम्) सर्वोत्कृष्टम् (पदम्) अन्वेष्यं ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं वा (सदा) सर्वस्मिन् काले (पश्यन्ति) सम्प्रेक्षन्ते (सूरयः) धार्मिका मेधाविनः पुरुषार्थयुक्ता विद्वांसः। सूरिरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) अत्र सूङः क्रिः। (उणा०४.६४) अनेन 'सूङ' धातोः क्रिः प्रत्ययः। (दिवीव) यथा सूर्यादिप्रकाशे विमलेन ज्ञानेन। स्वात्मनि वा (चक्षुः) चष्टे येन तन्नेत्रम्। चक्षेः शिच्च। (उणा०२.११५) अनेन 'चक्षे' रुसिप्रत्ययः शिच्च। (आततम्) समन्तात् ततं विस्तृतम्॥२०॥
विषयः- तद् ब्रह्म कीदृशमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- सूरयो विद्वांसो दिव्याततं चक्षुरिव यद्विष्णोराततं परमं पदमस्ति तत् स्वात्मनि सदा पश्यन्ति॥२०॥
भावार्थः (महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा प्राणिनः सूर्यप्रकाशे शुद्धेन चक्षुषा मूर्त्तद्रव्याणि पश्यन्ति, तथैव विद्वांसो विमलेन ज्ञानेन विद्यासुविचारयुक्ते शुद्धे स्वात्मनि जगदीश्वरस्य सर्वानन्दयुक्तं प्राप्तुमर्हं मोक्षाख्यं पदं दृष्ट्वा प्राप्नुवन्ति। नैतत्प्राप्त्या विना कश्चित्सर्वाणि सुखानि प्राप्तुमर्हति तस्मादेतत्प्राप्तौ सर्वैः सर्वदा प्रयत्नोऽनुविधेय इति। विलसनाख्येन 'परमं पदम्' इत्यस्यार्थो हि स्वर्गो भवितुमशक्य इति भ्रान्त्योक्तत्वान्मिथ्यार्थोऽस्ति, कुतः' परमस्य पदस्य स्वर्गवाचकत्वादिति॥२०॥
विषय
वेदविषयविचार:
व्याख्यान
और भी इस विषय में ऋग्वेद का प्रमाण है कि—( तद्वि॰ ) विष्णु अर्थात् व्यापक जो परमेश्वर है, उसका ( परमम् ) अत्यन्त उत्तम आनन्दस्वरूप ( पदम् ) जो प्राप्त होने के योग्य अर्थात् जिसका नाम मोक्ष है उसको ( सूरयः ) विद्वान् लोग ( सदा पश्यन्ति ) सब काल में देखते हैं। वह कैसा है? सब में व्याप्त हो रहा है और उसमें देश, काल, वस्तु का भेद नहीं है, अर्थात् उस देश में है और इस देश में नहीं, तथा उस काल में था और इस काल में नहीं, उस वस्तु में है और इस वस्तु में नहीं, इसी कारण से वह पद सब जगह में सबको प्राप्त होता है, क्योंकि वह ब्रह्म सब ठिकाने परिपूर्ण है। इसमें यह दृष्टान्त है कि ( दिवीव चक्षुराततम् ) जैसे सूर्य का प्रकाश आवरणरहित आकाश में व्याप्त होता है और जैसे उस प्रकाश में नेत्र की दृष्टि व्याप्त होती है, इसी प्रकार परब्रह्म पद भी स्वयंप्रकाश, सर्वत्र व्याप्तवान् हो रहा है। उस पद की प्राप्ति से कोई भी प्राप्ति उत्तम नहीं है। इसलिये चारों वेद उसीकी प्राप्ति कराने के लिये विशेष करके प्रतिपादन कर रहे हैं।
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे विद्वान् और मुमुक्षु जीवो! (विष्णो:) विष्णु का जो (परमम्) अत्यन्तोत्कृष्ट (पदम्) पद [पदनीय] सबके जानने योग्य, जिसको प्राप्त होके पूर्णानन्द में रहते हैं फिर वहाँ से कभी दुःख में नहीं गिरते, उस पद को (सूरयः) धर्मात्मा, जितेन्द्रिय सबके हितकारक विद्वान् लोग (सदा पश्यन्ति) यथावत् अच्छे विचार से देखते हैं, वह परमेश्वर का पद है। किस दृष्टान्त से कि जैसे आकाश में (चक्षुः) नेत्र की व्याप्ति वा सूर्य का प्रकाश सब ओर से व्याप्त है, वैसे ही (दिवीव, चक्षुराततम्) परब्रह्म सब जगह में परिपूर्ण, एकरस भर रहा है। वही परमपदस्वरूप परमात्मा परमपद है, इसी की प्राप्ति होने से जीव सब दुःखों से छूटता है, अन्यथा जीव को कभी परमसुख नहीं मिलता। इससे सब प्रकार से परमेश्वर की प्राप्ति में यथावत् प्रयत्न करना चाहिए ॥ २१ ॥
विषय
विष्णु का परमपद
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार आत्मनिरीक्षण करते हुए और अपने कर्मों को पवित्र बनाते हुए (सूरयः) - ज्ञानी लोग - प्रभु की प्रेरणा के अनुसार चलनेवाले लोग (तत् विष्णोः) - उस सर्वव्यापक प्रभु के (परमं पदम्) - सर्वोत्कृष्ट स्थान को सदा - सदा वैसे (पश्यति) - देखते हैं (इव) - जैसे (दिवि) - द्युलोक में (आततं चक्षुः) - उस समन्तात् विस्तृत चक्षु - सूर्य को देखते हैं ।
२. आदित्यश्चक्षर्भूत्वा अक्षिणी प्राविशत् [ऐत०१४] सूर्य ही चक्षु का रूप धारण करके आँख में रहता है आँख सूर्य का छोटा रूप है । इसके विपरीत सूर्य का चक्षु विस्तृत रूप है - सूर्य ' आतत - चक्षु' है । यह सूर्य जितना स्पष्ट दिखता है , इतना ही स्पष्ट ज्ञानी लोग प्रभु के पद को देखते हैं ।
३. पूर्वमन्त्र में व्यापक उन्नति करनेवाले जीव को भी विष्णु कहा है । परमात्मा को उससे भिन्न करने के लिए "तद् विष्णुः" वह सर्वत्र विस्तृत [तनु विस्तारे] विष्णु कहा गया है । इस विष्णु - जीव ने उस विष्णु - प्रभु को देखना है । उसे देखने के लिए ' सूरि' बनना आवश्यक है । ' विष्णुर्भूत्वा यजेद् विष्णुम्' विष्णु बनकर ही विष्णु का उपासन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम विष्णु बनेंगे तो उस विष्णु - सर्वव्यापक प्रभु के दर्शन इस प्रकार स्पष्ट कर पाएँगे जैसे सूर्य के ।
विषय
विष्णु, परमेश्वर ।
भावार्थ
( विष्णोः ) व्यापक परमेश्वर के ( तत् ) उस (परमं ) परम ( पदम् ) पद, परम वेद्य स्वरूप को ( सूरयः ) विद्वान् पुरुष ( दिवि ) आकाश में ( आततम् ) खुले ( चक्षुः ) सर्व पदार्थों के दर्शक सूर्य के समान स्वतःप्रकाश रूप से ( सदा पश्यन्ति ) सदा देखते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (3)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे प्राणी सूर्यप्रकाशात शुद्ध नेत्रांनी मूर्तिमान पदार्थ पाहतात तसेच विद्वान लोक शुद्ध ज्ञानाने, विद्येने किंवा श्रेष्ठ विचाराने शुद्ध झालेल्या आत्म्यात जगदीश्वराला पाहतात व आनंद देणाऱ्या मोक्षाला प्राप्त करतात. त्याच्या प्राप्तीखेरीज कोणताही माणूस सर्व सुख प्राप्त करण्यास समर्थ बनू शकत नाही. त्यामुळे त्याच्या प्राप्तीसाठी सर्व माणसांनी निरंतर प्रयत्न केले पाहिजेत. ॥ २० ॥
टिप्पणी
या मंत्रात ‘परमम्’ पदम् या पदाचा अर्थ युरोपियन विल्सन साहेबांनी स्वर्ग होऊ शकत नाही, असे म्हटले आहे. हा त्यांचा भ्रम आहे. कारण परमपदाचा अर्थ स्वर्गच आहे. ॥ २० ॥
विषय
प्रार्थना
व्याखान
हे विद्वानांनो व मुमुक्षु जीवांनो! सर्वांनी जाणण्यायोग्य विष्णूचे अत्यंत उत्कृष्ट पद ज्याला प्राप्त होते ते पूर्णानंदामध्ये राहतात . मग त्यांना लवकर दुःख प्राप्त होत नाही, त्या पदाला (सूरयः) धर्मात्मा, जितेंद्रिय, सर्वांचे हितकर्ते विद्वान लोक उत्तम क्हेने जाणून घेतात. ते परमेश्वराचे पद आहे. आकाशात (चक्षुः) नेत्रांची व्याप्ती सगळीकडे आहे किंवा सूर्याचा प्रकाश सगळीकडे पसरलेला असतो. या दृष्टान्ताप्रमाणे (दिवीव चक्षुराततम्) परब्रह्म सर्व ठिकाणी परिपूर्ण एक रस भरलेले आहे. व तेच परमपद आहे त्याची प्राप्ती होण्याचे जीव सर्व दुःखातून सुटतो. अन्यथा जीवाला कधीही अत्यंत सुख प्राप्त होत नाही. म्हणून परमेश्वराची प्राप्ती होण्यासाठी चांगल्याप्रकारे प्रयत्न केले पाहिजेत. ॥२१॥
व्याख्यान
भाषार्थ : याविषयी ऋग्वेदाचे प्रमाण आहे, की (तद्वि.) विष्णू अर्थात व्यापक परमेश्वर (परमं) अत्यंत उत्तम आनंदस्वरूप (पद) प्राप्त होण्यायोग्य अर्थात ज्याचे नाव मोक्ष आहे, त्याला (सूरय:) विद्वान लोक (सदा पश्यन्ति) सर्व काळी पाहतात तो सर्वांत व्याप्त असून स्थान, काल व वस्तूचा भेद नाही. अर्थात, या देशात आहे, त्या देशात नाही, या काळात होता, त्या काळात नाही, या वस्तूमध्ये आहे, त्या वस्तूमध्ये नाही, या कारणामुळे ते पद सर्वस्थानी सर्वांना प्राप्त होते. कारण तो ब्रह्म सर्व ठिकाणी परिपूर्ण आहे. यात हा दृष्टान्त आहे, की (दिवीव चक्षुराततम् ) जसा सूर्याचा प्रकाश आवरणरहित आकाशात व्याप्त असतो व जसे त्या प्रकाशात नेत्राची दृष्टी व्याप्त होते, याच प्रकारे परब्रह्म पदही स्वयंप्रकाश, सर्वत्र व्याप्त होत आहे. त्या पदाच्या प्राप्तीपेक्षा कोणतीही प्राप्ती उत्तम नाही. त्यासाठी चारही वेद त्याची प्राप्ती करविण्यासाठी विशेष प्रतिपादन करतात. याविषयी वेदान्तशास्त्रात व्यास मुनींचेही प्रमाण आहे. तत्तु समन्वयात् सर्व वेदवाक्यात ब्रह्माचेच विशेष प्रतिपादन केलेले आहे. कुठे कुठे साक्षातरूपानेच कधी कधी परंपरेने, याच कारणाने तो परब्रह्म वेदांचा परम अर्थ आहे. याविषयी यजुर्वेदाचेही प्रमाण आहे की- (यस्मान्न जा.) ज्या परब्रह्मापेक्षा (अन्य:) दुसरा कोणीही (पर:) उत्तम पदार्थ (जात:) प्रकट (नास्ति) अर्थात नाही (य आविवेश भु.) जो सर्व विश्वात व्याप्त होत आहे (प्रजापति: प्र.) तोच सर्व जगाचा पालनकर्ता व अध्यक्ष आहे ज्याने (त्रीणि ज्योतिाषि) अग्नी, सूर्य व विद्युत् या तीन ज्योतींचा प्रजेमध्ये प्रकाश होण्यासाठी (सचत) रचना करून संयुक्त केलेले आहे व ज्याचे नाव (षोडशी) आहे. अर्थात (१) ईक्षण जो यथार्थ विचार, (२) प्राण, सर्व विश्वाला धारण करणारा, (३) श्रद्धा-सत्यावर विश्वास, (४) आकाश, (५) वायू, (६) अग्नी, (७) जल, (८) पृथिवी, (९) इंद्रिय, (१०) मन अर्थात ज्ञान, (११) अन्न, (१२) वीर्य अर्थात बल व पराक्रम, (१३) तप अर्थात धर्मानुष्ठान सत्याचार (१४) मंत्र अर्थात वेदविद्या, (१५) कर्म अर्थात सर्व प्रयत्न, (१६) नाव अर्थात दृश्य व अदृश्य पदार्थाची संज्ञा यालाच सोळा कला म्हणतात. हे सर्व ईश्वरामध्येच आहे. त्यासाठी त्याला षोडशी म्हणतात. या षोडश कलांचे प्रतिपादन प्रश्नोपनिषदाच्या ६ व्या प्रश्नात केलेले आहे. यावरून कळते, की वेदांचा मुख्य अर्थ परमेश्वरच आहे व त्याच्यापासून पृथक हे जगत आहे. तो वेदांचा गौण अर्थ आहे. या दोन्हीमधून प्रमुखाचेच ग्रहण होते. त्यापासून हा निष्कर्ष काढता येतो, की वेदांचे मुख्य तात्पर्य परमेश्वराची प्राप्ती करविण्याची व प्रतिपादन करविण्याची आहे. त्या परमेश्वराच्या उपदेशरूपाने वेदाद्वारे कर्म, उपासना व ज्ञान या तीन कांडांचा हा लोक व परलोकाच्या व्यवहाराच्या फलांची सिद्धी व यथावत उपकार करण्यासाठी सर्व माणसांनी या चार विषयांच्या अनुष्ठानात पुरुषार्थ करावा. हाच मनुष्यदेह धारण करण्याचे फळ आहे.
इंग्लिश (4)
Meaning
Heroic souls of vision realise the supreme presence of Vishnu in their soul as they see the light of the sun in heaven.
Purport
O wise and salvation-seeking souls! The highest beatific state of Omnipresent God is worth knowing by all. By attaining [realising] that God, human soul enjoys the supreme bliss of liberation and never falls from that state into the misery of births and deaths [uptil the limit or period of salvation]. The righteous, self-restrained, the benefactor of all, learned persons with noble thoughts have a glimpse of that God.
By which instance! Just as the glance of the eye pervadse the whole space over which it is cast or the pervades the whole space over lustre of the sun is spread over all space, in the same way the Supreme Lord surrounds the whole universe in an uniform manner. That highest Beatific Lord is the final Beatitude of men. Realising this highest Beatific State, the soul is freed from all miseries, otherwise the the Soul I never gets bliss. Therefore, proper efforts [in accordance with the scriptures] should be made to realise God.
Subject of the mantra
How that Brahma (the creator of the universe) is, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(sūrayaḥ) =The righteous, brilliant, industrious scholars, (divi)=in the light of sun etc. (ātatam)=spread out, (cakṣuḥ)=view of eye’s, (iva)=like, (yat)=which, (viṣṇoḥ)=of pervading, blissful God, (ātatam)=spread out everywhere, (paramam)=quintessential, (padam)=discoverable, worth knowing and receivable, (asti)=is, (tat)=to Him, (sva)=in their, (ātmani)=in own soul, (sadā)=always, (paśyanti)=perceive.
English Translation (K.K.V.)
The righteous, brilliant, industrious scholars perceive Him which is always perceivable in their own soul, spread out everywhere in the light of Sun etc. like view of eye’s which is pervading, blissful God, spreads out everywhere, is quintessential discoverable and worth knowing.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as figurative in this mantra. Just as living beings see things embodied by the light of the Sun with pure eyes, similarly learned people, having pure knowledge in general, scholarship and good thoughts, see in their pure soul with all the joys of God and the attainable state of salvation. Without the attainment of this one cannot be able to attain all the happiness. Therefore, in order to be worthy of its attainment, all human beings should always make efforts. European scholar Wilson sahib has said that the meaning of the terms “paramam padam” can’t be taken as salvation. This is their misconception, because the meaning of paramapad is salvation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is that God is taught in the 20th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Righteous, wise, active learned devotees of God see within their own spotless souls with pure knowledge the All-pervading Blissful State of God who is Omnipresent and All-bliss. They see it within, as ordinary men see the grand sun in the sky.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पदम् ) अन्वेष्टव्यं ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं वा ( पदी-गतौ ज्ञानं गमन प्राप्तिश्च ) = The Blissful state to be sought after, known or attained. (सूरयः) धार्मिका मेधाविनः पुरुषार्थयुक्ता विद्वांसः । सूरिरिति स्तोतनामसु पठितम् (निघ० ३.१६) अत्र सूङः क्रि: (उणादि ४.६५) इत्यमेव सूङ् धातोः क्रिः प्रत्ययः । Learned men of righteous nature, wise and industrious. (दिवि इव ) यथा सूर्यादिप्रकाशे विमलेन ज्ञानेन स्वात्मनि वा = Within their own souls endowed with pure wisdom.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankar or simile used in this Mantra. As ordinary beings see in the light of the sun with pure or healthy eyes all embodied substances, so wise learned persons see within their souls purified with wisdom and noble thoughts, with pure knowledge the Blissful state of emancipation worthy of attainment and attain it. No one can enjoy real happiness without attaining this state. Therefore every one should exert one's best to attain this happiness. Wilson's statement in his notes on the translation of the Rigveda regarding the words Paramam Padam that "Supreme degree or station. The Scholiast (Sayanacharya) says Swarga but that is very questionable" is false or erroneous, as the term Paramam Padam does not stand for Swarga but for the Blissful State of emancipation.
नेपाली (1)
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे विद्वान् एवं मुमुक्षु जीव हो ! विष्णोः = विष्णु को जुन परमम्= अत्यन्त उत्कृष्ट पदम् = पद [पदनीय] सबैले जान्न योग्य, जसमा प्राप्त भएर पूर्णानन्द मा रहन्छन् फेरि त्यहाँ बाट कहिल्यै पनि दुःख सागर मा पर्दैनन् तेस पद लाई सूरयः = धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, सबैका हितकारक विद्वान् हरु सदापश्यन्ति= सदा यथावत् उत्तम विचार ले हेर्दछन्, त्यो परमेश्वर को पद हो । कुन दृष्टान्त हो भने जस्तै आकाश मा चक्षुः = आँखा को व्याप्ति वा सूर्य को प्रकाश सबैतिर व्याप्त छ, तेसरी नै दिवीव, चक्षुराततम् परब्रह्म सबै ठाउँ मा परिपूर्ण, एकरस र भरिई रहेको छ। उही परमपदस्वरूप परमात्मा परमपद हो, एसैकोप्राप्ति भएमा जीव सम्पूर्ण दुःख हरु बाट छुट्तछ, अन्यथा जीव लाई कहिल्यै पनि परमसुख प्राप्त हुन सक्तैन । एस कारण जसरी भए पनि परमेश्वर को प्राप्ति मा यथावत् प्रयत्न गर्नु पर्दछ ॥२१॥
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