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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    या वां॒ कशा॒ मधु॑म॒त्यश्वि॑ना सू॒नृता॑वती। तया॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षतम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । वा॒म् । कशा॑ । मधु॑ऽमती । अश्वि॑ना । सू॒नृता॑ऽवती । तया॑ । य॒ज्ञम् । मि॒मि॒क्ष॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या। वाम्। कशा। मधुऽमती। अश्विना। सूनृताऽवती। तया। यज्ञम्। मिमिक्षतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    काभ्यामेतौ सम्प्रयोजितुं शक्यावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे उपदेष्ट्रुपदेश्यावध्यापकशिष्यौ वां युवयोरश्विनोर्या सूनृतावती मधुमती कशाऽस्ति तया युवां यज्ञं मिमिक्षतं सेक्तुमिच्छतम्॥३॥

    पदार्थः

    (या) (वाम्) युवयोर्युवां वा (कशा) वाक्। कशेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (मधुमती) मधुरगुणा (अश्विना) प्रकाशितगुणयोरध्वर्य्योः। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (सूनृतावती) सूनृता प्रशस्ता बुद्धिर्विद्यते यस्यां सा। सूनृतेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (तया) कशया (यज्ञम्) सुशिक्षोपदेशाख्यम् (मिमिक्षतम्) सेक्तुमिच्छतम्॥३॥

    भावार्थः

    नैवोपदेशमन्तरा कस्यचित् किञ्चिदपि विज्ञानं वर्धते। तस्मात्सर्वैर्विद्वज्जिज्ञासुभिर्मनुष्यैर्नित्यमुपदेशः श्रवणं च कार्य्यमिति॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    वे क्रिया में किनसे संयुक्त हो सकते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे उपदेश करने वा सुनने तथा पढ़ने-पढ़ानेवाले मनुष्यो ! (वाम्) तुम्हारे (अश्विना) गुणप्रकाश करनेवालों की (या) जो (सूनृतावती) प्रशंसनीय बुद्धि से सहित (मधुमती) मधुरगुणयुक्त (कशा) वाणी है, (तया) उससे तुम (यज्ञम्) श्रेष्ठ शिक्षारूप यज्ञ को (मिमिक्षतम्) प्रकाश करने की इच्छा नित्य किया करो॥३॥

    भावार्थ

    उपदेश के विना किसी मनुष्य को ज्ञान की वृद्धि कुछ भी नहीं हो सकती, इससे सब मनुष्यों को उत्तम विद्या का उपदेश तथा श्रवण निरन्तर करना चाहिये॥३॥

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    विषय

    वे क्रिया में किनसे संयुक्त हो सकते हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे उपदेष्ट्रुपदेश्यौ अध्यापकशिष्यौ वां युवयोः अश्विनोः या सूनृतावती मधुमती कशा अस्ति तया युवां यज्ञं मिमिक्षतं सेक्तुम् इच्छतम्॥३॥

    पदार्थ

    हे (उपदेष्ट्रुपदेश्यौ)=उपदेश हेतु सुनने तथा पढ़ने वाले, (अध्यापकशिष्यौ)=अध्यापक और शिष्यों ! (वाम्) युवयोर्युवां वा=तुमको, (अश्विना) प्रकाशितगुणयोरध्वर्य्योः=गुणों को प्रकाशित करने वालों अध्वर्यु की, (या)=जो, (सूनृतावती) सूनृता प्रशस्ता बुद्धिर्विद्यते यस्यां सा=जिसमें  प्रशंसनीय बुद्धि विद्यमान है, वह, (मधुमती) मधुरगुणा= मधुर गुण युक्त,  (कशा) वाक्=वाणी, (अस्ति)=है, (तया) कशया=उस वाणी से,  युवाम्=तुम दोनों, (यज्ञम्) सुशिक्षोपदेशाख्यम्=श्रेष्ठ शिक्षारूपी नामक यज्ञ को, (मिमिक्षतम्) सेक्तुमिच्छतम्=प्रकाशित करने की इच्छा से नित्य किया करो॥३॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    उपदेश के विना किसी मनुष्य के ज्ञान की वृद्धि कुछ भी नहीं हो सकती है, इससे सब मनुष्यों को उत्तम विद्या का उपदेश तथा श्रवण निरन्तर करना चाहिये ॥३॥ 

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- अध्वर्यु-जो यज्ञ के उपकरणों की देखभाल  करता है और  यज्ञ-वेदि के आकार  प्रकार को  बनाता  है ॥३॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (उपदेष्ट्रुपदेश्यौ) उपदेश हेतु सुनने तथा पढ़ने वाले (अध्यापकशिष्यौ) अध्यापक और शिष्यों ! (वाम्) तुमको (अश्विना) गुणों को प्रकाशित करने वाले अध्वर्यु की (या) जो वाणी है और (सूनृतावती) जिसमें  प्रशंसनीय बुद्धि विद्यमान है, वह (मधुमती) मधुर गुणयुक्त (कशा) वाणी (अस्ति) है। (तया) उस वाणी से (युवाम्) तुम दोनों (यज्ञम्) श्रेष्ठ शिक्षारूपी नामक यज्ञ को (मिमिक्षतम्) प्रकाश करने की इच्छा से नित्य किया करो॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (या) (वाम्) युवयोर्युवां वा (कशा) वाक्। कशेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (मधुमती) मधुरगुणा (अश्विना) प्रकाशितगुणयोरध्वर्य्योः। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (सूनृतावती) सूनृता प्रशस्ता बुद्धिर्विद्यते यस्यां सा। सूनृतेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (तया) कशया (यज्ञम्) सुशिक्षोपदेशाख्यम् (मिमिक्षतम्) सेक्तुमिच्छतम्॥३॥
    विषयः- काभ्यामेतौ सम्प्रयोजितुं शक्यावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे उपदेष्ट्रुपदेश्यावध्यापकशिष्यौ वां युवयोरश्विनोर्या सूनृतावती मधुमती कशाऽस्ति तया युवां यज्ञं मिमिक्षतं सेक्तुमिच्छतम्॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- नैवोपदेशमन्तरा कस्यचित् किञ्चिदपि विज्ञानं वर्धते। तस्मात्सर्वैर्विद्वज्जिज्ञासुभिर्मनुष्यैर्नित्यमुपदेशः श्रवणं च कार्य्यमिति॥३॥

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    विषय

    मधुमती कशा

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) - प्राणापानो ! (या) - जो (वाम्) - आप दोनों की (मधुमती) - अत्यन्त माधुर्यवाली तथा (सुनृतावती) - उत्तम , दुःखों का परिहाण करनेवाली तथा सत्य (कशा) - वाणी है , (तया) - उस वाणी से (यजम्) - हमारे इस जीवन - यज्ञ को (मिमिक्षतम्) - सिक्त कर दो , अर्थात् हम सदा मधुर , सूनृत वाणी ही बोलनेवाले हों 

    २. प्राणसाधना से सभी इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं । वाणी के मौलिक दोष कटुता व अनृतता ही हैं । ये दोनों दोष दूर होकर वाणी मधुर व सत्य बन जाती है । प्राणशक्ति के क्षीण होने पर ही चिड़चिड़ापन व स्वभाव में कटुता आती है , तभी मनुष्य कुछ अपशब्द बोलने लगता है । प्राणशक्ति के ठीक होने पर वाणी की मिठास ठीक बनी रहती है । प्राणशक्ति - सम्पन्न पुरुष सदा उत्तम , सुखद सत्यवाणी ही बोलता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्राणशक्ति - सम्पन्न बनकर सदा मधुमती , सूनृत वाणी ही बोलें । 

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    विषय

    दो अश्वी, स्त्री पुरुष, दो उत्तम अधिकारी, राजारानी, अग्नि जल, अध्यात्म में आत्मा, परमात्मा ।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) नाना विद्याओं को व्यापने वाले अध्यापक और शिष्यगणो ! ( वां ) तुम दोनों की (या) जो (मधुमती) मधुर, ऋग् आदि ज्ञानयुक्त, (सुनृतावती) उत्तम सत्यज्ञान से पूर्ण, (कशा) अर्थों के प्रकाश करनेवाली वाणी है ( तथा ) उसे आप दोनों ( यज्ञं ) यज्ञ सत्कर्माचरण और परस्पर के सत्संग और विद्या आदि के दान आदि व्यवहार और आत्मा और ईश्वरोपासना के कार्य को ( मिमिक्षतम् ) सेचन करो । अर्थात् इन कार्यों में मधुरवाणी का उपयोग करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उपदेशाशिवाय कोणत्याही माणसाच्या ज्ञानाची थोडीही वृद्धी होऊ शकत नाही. त्यासाठी सर्व माणसांनी उत्तम विद्येचा उपदेश व श्रवण निरंतर केले पाहिजे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, masters of the science of motion, with your words of knowledge, power, energy and velocity in nature, so sweet and so true, come and accomplish our yajna of creation and technology.

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    Subject of the mantra

    With which can they unite in action, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (upadeṣṭrupadeśyau)=listeners and readers for preaching, (adhyāpakaśiṣyau)=teachers and pupils, (vām)=to you, (aśvinā)=of adhvaryu who elucidates virtues, (yā)=that speech is, [aur]=and, (sūnṛtāvatī)=that in which praiseworthy wisdom is present, (madhumatī)=having sweet virtues, (kaśā)=speech, (asti)=is, (tayā)=with that speech, (yuvām)=both of you, (yajñam)=yajňam named as excellent teaching, (mimikṣatam)=perform daily with a desire to enlighten.

    English Translation (K.K.V.)

    O listeners and readers for preaching, teachers and pupils! To you that speech of Adhvaryu who elucidates virtues and that in which praiseworthy wisdom is present. That speech is having sweet virtues. With that speech, both of you perform daily with a desire to enlighten, yajňam, named as excellent teaching.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Nothing can increase a man's knowledge without preaching, so all humans should continuously preach and listen to the best knowledge.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    One who takes care of the instruments of the yajan and makes the shape of the sacrificial altar.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who can use them (fire and water etc.)well is taught in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O preachers and the people, O teachers and the taught, with your speech which is full of honey (sweetness), admirable intellect, truth and pleasantness, always desire to sprinkle the Yajna in the form of good training and preaching.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (कशा) वाक् कशेति वाङ्-नामसु ( निघ० १.११ ) । = Speech. (सूनृतावती) सूनृता प्रशस्ता बुद्धिर्विद्यते यस्यां सा सूनृतेति वाङ् नामसु ( निघ० १.११) अत्र प्रशंसार्थे मतुप्- = Speech full of pleasantness and admirable intellect. (यज्ञम) सुशिक्षोपदेशाख्यम् = Yajna in the form of good training and preaching. (मिमिक्षतम् ) सेक्तुम् इच्छतम् = desire to sprinkle. (अश्विना) प्रकाशितगुणयोः अध्वर्वोः = Of priests, teachers and preachers whose attributes are manifest.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    No one's knowledge or wisdom can grow without preaching or instruction by an expert. Therefore the learned and sackers after knowledge should respectively preach and hear attentively.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has explained अश्विनौ here as अध्वर्यू though he has not cited any authority to substantiate it. Such an authority from the Shatapath and other Brahmans is available un-ambiguously. In the Shatapath Brahmana * 1.1.2.17 it is stated. अश्विनाध्वर्यू ॥ (शत० १.१. २. १७) G In the Aitareya Brahmana 1. 28 it is stated. अश्विनावध्वर्यू (ऐतरेये १. १८ ) In Taittiriya Brahman 3.2.2.1 and Gopath Uttarardha 2.6 also the same passage अश्विनावध्वर्यू is found. So Rishi Dayananda's interpretation is fully substantiated by these passages from ancient Vedic literature as the Brahmanas are the most ancient commentaries of the Vedas. Rishi Dayananda takes Yajnam here in the sense of सुशिक्षोपदेशाख्यम् He always takes such Vedic terms as यह in a comprehensive sense unlike other commentators who narrow them down to ritualistic sense as has been pointed out before. The word Yajna is derived from the root Yaj (यज) which means देवपूजा संगतिकरणदानेषु When taken in the sense of संगतिकरण it can mean that which creates unity and loving association, which is possible mainly through good training and preaching by enlightened persons. The same sense can be taken by the third meaning of यज as दान It is not merely charity of money but also the gift of knowledge and instruction. The Bhagavad Gita follows the Veda in describing various kinds of Yajna including (स्वाध्याय ) and ज्ञान study and knowledge. मिमिक्षतम् has been interpreted by Rishi Dayananda as सेक्तुम् इच्चतम् desire to sprinkle. मिह-सेचने ||

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