Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - सविता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    हिर॑ण्यपाणिमू॒तये॑ सवि॒तार॒मुप॑ ह्वये। स चेत्ता॑ दे॒वता॑ प॒दम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽपाणिम् । ऊ॒तये॑ । स॒वि॒तार॑म् । उप॑ । ह्व॒ये॒ । सः । चेत्ता॑ । दे॒वता॑ । प॒दम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुप ह्वये। स चेत्ता देवता पदम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽपाणिम्। ऊतये। सवितारम्। उप। ह्वये। सः। चेत्ता। देवता। पदम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथैश्वर्य्यहेतुरुपदिश्यते।

    अन्वयः

    अहमूतये यं पदं हिरण्यपाणिं सवितारं परमात्मानमुपह्वये सा चेत्ता देवतास्ति॥५॥

    पदार्थः

    (हिरण्यपाणिम्) हिरण्यानि सुवर्णादीनि रत्नानि पाणौ व्यवहारे लभन्ते यस्मात्तम् (ऊतये) प्रीतये (सवितारम्) सर्वजगदन्तर्यामिणमीश्वरम् (उप) उपगमार्थे (ह्वये) स्वीकुर्वे (सः) जगदीश्वरः (चेत्ता) ज्ञानस्वरूपः (देवता) देव एवेति देवता पूज्यतमा। देवात्तल्। (अष्टा०५.४.२७) इति स्वार्थे तल् प्रत्ययः। (पदम्) पद्यते प्राप्तोऽस्ति चराचरं जगत् तम्॥५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यश्चिन्मयः सर्वत्र व्यापकः पूज्यतमः प्रीतिविषयः सर्वैश्वर्य्यप्रदः परमेश्वरोऽस्ति, स एव नित्यमुपास्यः। नैव तद्विषयेऽस्मादन्यः कश्चित्पदार्थ उपासितुमर्होऽस्तीति मन्तव्यम्॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परम ऐश्वर्य्य करानेवाले परमेश्वर का प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    मैं (ऊतये) प्रीति के लिये जो (पदम्) सब चराचर जगत् को प्राप्त और (हिरण्यपाणिम्) जिससे व्यवहार में सुवर्ण आदि रत्न मिलते हैं, उस (सवितारम्) सब जगत् के अन्तर्यामी ईश्वर को (उपह्वये) अच्छी प्रकार स्वीकार करता हूँ (सः) वह परमेश्वर (चेत्ता) ज्ञानस्वरूप और (देवता) पूज्यतम देव है॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को जो चेतनमय सब जगह प्राप्त होने और निरन्तर पूजन करने योग्य प्रीति का एक पुञ्ज और ऐश्वर्य्यों का देनेवाला परमेश्वर है, वही निरन्तर उपासना के योग्य है। इस विषय में इसके विना कोई दूसरा पदार्थ उपासना के योग्य नहीं है॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इस मन्त्र में परम ऐश्वर्य्य करानेवाले परमेश्वर का प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अहम् ऊतये यं  पदं  हिरण्यपाणिं सवितारं परमात्मानम् उप ह्वये सा चेत्ता देवता अस्ति॥५॥

    पदार्थ

    (अहम्) मैं, (ऊतये) प्रीतये=प्रीति के लिये (यम्) जिस (पदम्) पद्यते प्राप्तोऽस्ति चराचरं जगत् तम्=सब चराचर जगत् को प्राप्त और (हिरण्यपाणिम्) हिरण्यानि सुवर्णादीनि रत्नानि पाणौ व्यवहारे लभन्ते=जिससे व्यवहार में सुवर्ण आदि रत्न मिलते हैं, उस (सवितारम्) सर्वजगदन्तर्यामिणमीश्वरम्=सब जगत् के अन्तर्यामी  ईश्वर को  (उप) उपगमार्थे=अच्छी प्रकार (ह्वये) स्वीकुर्वे=स्वीकार करता हूँ। वह (चेत्ता) ज्ञानस्वरूपः=ज्ञानस्वरूप और (देवता) देव एवेति देवता पूज्यतमा=पूज्यतम देव (अस्ति)  है॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को जो चेतनमय सब जगह व्यापक होने और निरन्तर पूजन करने योग्य प्रीति का एक पुञ्ज और ऐश्वर्य्यों का देनेवाला परमेश्वर है, वही निरन्तर उपासना के योग्य है। इस विषय में हमारा इसके सिवा कोई दूसरा पदार्थ उपासना के योग्य नहीं है॥५॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अहम्) मैं (ऊतये)  प्रीति के लिये (यम्) जिस (पदम्) सब चराचर जगत् को प्राप्त करता हूँ [और] (हिरण्यपाणिम्) जिससे व्यवहार में सुवर्ण आदि रत्न मिलते हैं, उस (सवितारम्) सब जगत् के अन्तर्यामी  ईश्वर को  (उप) अच्छी  प्रकार  (ह्वये)  स्वीकार करता हूँ। वह (चेत्ता) ज्ञानस्वरूप और (देवता) पूज्यतम देव (अस्ति)  है॥५॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (हिरण्यपाणिम्) हिरण्यानि सुवर्णादीनि रत्नानि पाणौ व्यवहारे लभन्ते यस्मात्तम् (ऊतये) प्रीतये (सवितारम्) सर्वजगदन्तर्यामिणमीश्वरम् (उप) उपगमार्थे (ह्वये) स्वीकुर्वे (सः) जगदीश्वरः (चेत्ता) ज्ञानस्वरूपः (देवता) देव एवेति देवता पूज्यतमा। देवात्तल्। (अष्टा०५.४.२७) इति स्वार्थे तल् प्रत्ययः। (पदम्) पद्यते प्राप्तोऽस्ति चराचरं जगत् तम्॥५॥
    विषयः- अथैश्वर्य्यहेतुरुपदिश्यते।

    अन्वयः- अहमूतये यं पदं हिरण्यपाणिं सवितारं परमात्मानमुपह्वये सा चेत्ता देवतास्ति॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यश्चिन्मयः सर्वत्र व्यापकः पूज्यतमः प्रीतिविषयः सर्वैश्वर्य्यप्रदः परमेश्वरोऽस्ति, स एव नित्यमुपास्यः। नैव तद्विषयेऽस्मादन्यः कश्चित्पदार्थ उपासितुमर्होऽस्तीति मन्तव्यम्॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सविता का आह्वान

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र का प्राणसाधना करनेवाला व्यक्ति ब्रह्मलोक [सोमिगृह] में पहुँचकर प्रभु का स्तवन करता है कि (हिरण्यपाणिम्) - हितरमणीय रक्षणवाले (सवितारम्) - सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के उत्पादक व सबके प्रेरक उस प्रभु को (ऊतये) - रक्षण के लिए (उपह्वये) - पुकारता है । यह आकाश में उदित होनेवाला सुर्य भी ' हिरण्यपाणि' है , हाथ में स्वर्ण को लिये हुए है । यह अपने किरणरूप हाथों से हममें स्वर्ण को प्रक्षिप्त [Inject] करने का प्रयत्न करता है । इसकी किरणों को हम छाती पर लेते हैं तो ये रोगकृमियों को नष्ट करनेवाली होती हैं । सूर्य भी (सविता) - सबको जगाकर कर्म में लगने की प्रेरणा देता है । यह सविता उस सविता की ही विभूति है । 

    २. (सः) - वे प्रभु (चेत्ता) - संज्ञानवाले हैं । प्रभु के ज्ञान में किसी प्रकार की कमी नहीं । (देवता) - वे प्रभु सब - कुछ देनेवाले हैं , ज्ञान से दीप्त हैं । और पवित्र हृदयवालों को ज्ञान से द्योतित करनेवाले हैं । "पदम् - पद्यते योगिभिर्यस्मात्तस्मात्पद उदाहृतः" शान्त चित्तवाले मुनियों से जानने योग्य हैं , अथवा सबका अन्तिम लक्ष्यस्थान हैं । प्रभु तक पहुँचकर ही जीवन यात्रा का अन्त होगा । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ' हिरण्यपाणि , सविता , चेत्ता , देवता व पद' हैं , उन्हें मैं अपनी रक्षा के लिए पुकारता हूँ । [सूचना - पद का अर्थ ' गतिशील' भी है - प्रभु सदा क्रियाशील हैं ।] 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सविता, जगदुत्पादक परमेश्वर, राजा ।

    भावार्थ

    मैं ( सवितारम् ) सर्व जगत् के उत्पादक, (हिरण्यपाणिम्) हृदय को आनन्द देने वाली पूजावाले, अथवा—समस्त सूर्यादि गतिशील एवं तेजस्वी, हितकारी और सब जन्तुओं को सुखकारी पदार्थों को अपने वशकारी हाथ या अधिकार में रखने वाले परमेश्वर को ही ( ऊतये ) अपनी रक्षा के लिए ( उप ह्वये ) सदा स्मरण करता रहूं । (सः) वह ही (देवता) साक्षात् सब पदार्थों का देनेवाला, सब ज्ञानों और तत्वों का सूर्य के समान साक्षात् दर्शाने और ज्ञान कराने वाला और ( चेत्ता ) सब ज्ञानों को प्राप्त करानेवाला और ( पदम् ) प्राप्त करने योग्य एवं जगत् में सर्वत्र व्यापक है । राजा के पक्ष में —( सवितारम् ) सबके प्रेरक, ( हिरण्यपाणिम् ) सुवर्णादि हृदयग्राही पदार्थों को अपने वश में रखने वाले, दाता को रक्षा के लिए स्वीकार करूँ । वही को प्रजाओं धर्माधर्म का चेतने वाला, राजारूप सर्वोच्च पद के योग्य है। सूर्य के पक्ष में—क्रान्तिमान् किरणों से वह हिरण्यपाणि है। सब चेतन और चेतनों की प्रेरक होने से 'सविता' और ज्ञापक, द्रष्टा होने से 'चेत्ता' और दाता, व्यापक सर्वाश्रय और परम प्राप्य होने से 'पद' है । इति चतुर्थो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो चैतन्यमय, सर्वव्यापक, निरंतर पूजनीय, प्रेमपुंज व संपूर्ण ऐश्वर्यदाता परमेश्वर आहे. तोच माणसांनी उपासना करण्यायोग्य आहे. त्याच्याशिवाय दुसरा कोणताही पदार्थ उपासना करण्यायोग्य नाही. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    For protection, love and progress, we invoke the golden-handed Savita, creator, energiser, omniscient giver of knowledge and awareness, light of the universe and the supreme destination.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    In this mantra, God having paramount majesty has been elucidated.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (aham)=I, (ūtaye) =for affection, (yam)=which, (padam)=receive all the movable and immovable world, [aur]=and, (hiraṇyapāṇim) =in which gold et cetera gemstones are obtained in dealings of that world, (savitāram)=inner dweller of the whole world, (upa)=well, (hvaye)=I accept, [vah]=He, (cettā)=form of knowledge, [aur]=and, (devatā) =most worshipped deity, (asti) =is.

    English Translation (K.K.V.)

    All the movable and immovable worlds that I acquire for love and from which gold etc. gems are obtained in practice, I fully accept that inner God of all the world. He is form of the knowledge and most worshipped deity.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God who is conscious, pervasive everywhere and a bundle of love and giver of opulence to be worshiped continuously, is worthy of constant worship. There is no other thing worthy of worship except Him for us in this respect.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now God the Lord of all wealth is taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    For the sake of protection and love, I invoke God, the Creator of the world by Whose Grace a man gets gold and other gems. He is Omniscient and the most Admirable. It is He who pervades this Universe.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always adore or worship God who is Omniscient, Omnipresent, most adorable, the object of love and giver of all wealth. There is none else to be worshipped besides Him or in His place.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top