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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 15
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - पृथिवी छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स्यो॒ना पृ॑थिवि भवानृक्ष॒रा नि॒वेश॑नी। यच्छा॑ नः॒ शर्म॑ स॒प्रथः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्यो॒ना । पृ॒थि॒वि॒ । भ॒व॒ । अ॒नृ॒क्ष॒रा । नि॒ऽवेश॑नी । यच्छ॑ । नः॒ । शर्म॑ । स॒ऽप्रथः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्योना पृथिवि भवानृक्षरा निवेशनी। यच्छा नः शर्म सप्रथः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्योना। पृथिवि। भव। अनृक्षरा। निऽवेशनी। यच्छ। नः। शर्म। सऽप्रथः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    इयं भूमिः किमर्था कीदृशी चेत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    येयं पृथिवी स्योनाऽनृक्षरा निवेशनी भवति सा नोऽस्मभ्यं सप्रथः शर्म्म यच्छ प्रयच्छति॥१५॥

    पदार्थः

    (स्योना) सुखहेतुः। इदं ‘सिवु’धातो रूपम् सिवेष्टेर्यू च। (उ०३.९) अनेन नः प्रत्ययष्टेर्यूरादेश्च। स्योनमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (पृथिवि) विस्तीर्णा सती विशालसुखदात्री भूमिः। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (भव) भवति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (अनृक्षरा) अविद्यमाना ऋक्षरा दुःखप्रदाः कण्टकादयो यस्यां सा (निवेशनी) निविशन्ति प्रविशन्ति यस्यां सा (यच्छ) यच्छति फलादिभिर्ददति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (नः) अस्मभ्यम् (शर्म) सुखम् (सप्रथः) यत् प्रथोभिर्विस्तृतैः पदार्थैः सह वर्त्तते तत्। यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याख्यातवान्-सुखा नः पृथिवि भवानृक्षरा निवेशन्यृक्षरः कण्टक ऋच्छतेः। कण्टकः कन्तपो वा कृन्ततेर्वा कण्टतेर्वा स्याद् गतिकर्म्मण उद्गततमो भवति। यच्छ नः शर्म्म यच्छन्तु शरणं सर्वतः पृथु। (निरु०९.३२)॥१५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्भूगर्भविद्यया गुणैर्विदितेयं भूमिरेव मूर्त्तिमतां निवासस्थानमनेकसुखहेतुः सती बहुरत्नप्रदा भवतीति वेद्यम्॥१५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    यह भूमि किसलिये और कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    जो यह (पृथिवी) अति विस्तारयुक्त (स्योना) अत्यन्त सुख देने तथा (अनृक्षरा) जिसमें दुःख देनेवाले कण्टक आदि न हों (निवेशनी) और जिसमें सुख से प्रवेश कर सकें, वैसी (भव) होती है, सो (नः) हमारे लिये (सप्रथः) विस्तारयुक्त सुखकारक पदार्थवालों के साथ (शर्म्म) उत्तम सुख को (यच्छ) देती है॥१५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है, कि यह भूमि ही सब मूर्त्तिमान् पदार्थों के रहने की जगह और अनेक प्रकार के सुखों की करानेवाली और बहुत रत्नों को प्राप्त करानेवाली होती है, ऐसा ज्ञान करें॥१५॥

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    विषय

    यह भूमि किसलिये और कैसी है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    य इयं पृथिवी स्योना अनृक्षरा निवेशनी भवति सा नःअस्मभ्यं सप्रथः शर्म्म यच्छ प्रयच्छति॥१५॥

    पदार्थ

    (य)=जो, (इयम्)=यह, (पृथिवि) विस्तीर्णा सती विशालसुखदात्री=विस्तारित होने पर सुख देने वाली भूमि, (स्योना) सुखहेतुः=सुख देने और, (अनृक्षरा) अविद्यमाना ऋक्षरा दुःखप्रदाः कण्टकादयो यस्यां सा= जिसमें दुःख देनेवाले कण्टक आदि न हों, (निवेशनी) निविशन्ति प्रविशन्ति यस्यां सा=और जिसमें सुख से प्रवेश कर सकें, (भवति)=है। (सा)=वह भूमि, (नः-अस्मभ्यम्)=हमारे लिए, (सप्रथः) यत् प्रथोभिर्विस्तृतैः पदार्थैः सह वर्त्तते तत्=विस्तारयुक्त सुखकारक पदार्थवालों के साथ, (शर्म) सुखम्=उत्तम सुख (यच्छ) यच्छति फलादिभिर्ददति=फल आदि देती है॥१५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के द्वारा भूगर्भ विद्या के द्वारा गुणों न जानते हुए भूमि  को ही सब मूर्त्तिमान् पदार्थों के रहने की जगह और अनेक प्रकार के सुखों की करानेवाली होते हुए बहुत रत्नों को प्रदान करानेवाली होती है, ऐसा जानना चाहिए॥१५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (इयम्) यह (पृथिवि) विस्तारित होने पर सुख देने वाली भूमि (य) जो (स्योना) सुख देने और (अनृक्षरा) जिसमें दुःख देनेवाले कण्टक आदि न हों (निवेशनी) और ऐसी जिसमें सुख से प्रवेश (भवति) होता है। (सा) वह भूमि (नः) हमारे लिए (सप्रथः) विस्तारयुक्त, सुखकारक पदार्थवालों के साथ (शर्म) उत्तम सुख, (यच्छ) फल आदि देती है॥१५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (स्योना) सुखहेतुः। इदं 'सिवु'धातो रूपम् सिवेष्टेर्यू च। (उ०३.९) अनेन नः प्रत्ययष्टेर्यूरादेश्च। स्योनमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (पृथिवि) विस्तीर्णा सती विशालसुखदात्री भूमिः। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (भव) भवति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (अनृक्षरा) अविद्यमाना ऋक्षरा दुःखप्रदाः कण्टकादयो यस्यां सा (निवेशनी) निविशन्ति प्रविशन्ति यस्यां सा (यच्छ) यच्छति फलादिभिर्ददति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (नः) अस्मभ्यम् (शर्म) सुखम् (सप्रथः) यत् प्रथोभिर्विस्तृतैः पदार्थैः सह वर्त्तते तत्। यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याख्यातवान्-सुखा नः पृथिवि भवानृक्षरा निवेशन्यृक्षरः कण्टक ऋच्छतेः। कण्टकः कन्तपो वा कृन्ततेर्वा कण्टतेर्वा स्याद् गतिकर्म्मण उद्गततमो भवति। यच्छ नः शर्म्म यच्छन्तु शरणं सर्वतः पृथु। (निरु०९.३२)॥१५॥
    विषयः- इयं भूमिः किमर्था कीदृशी चेत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- येयं पृथिवी स्योनाऽनृक्षरा निवेशनी भवति सा नोऽस्मभ्यं सप्रथः शर्म्म यच्छ प्रयच्छति॥१५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्भूगर्भविद्यया गुणैर्विदितेयं भूमिरेव मूर्त्तिमतां निवासस्थानमनेकसुखहेतुः सती बहुरत्नप्रदा भवतीति वेद्यम्॥१५॥ 

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    विषय

    सुखद शरीर [स्योना पृथिवी]

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार हृदय के प्रभु का निवास बनने पर (पृथिवि) - हे शरीर ! तू (स्योना) - सुखद (भव) - हो । एक बालक के कष्ट तभी से आरम्भ होते हैं जब वह माता से वियुक्त होता है , इसी प्रकार हमारे भी कष्ट तभी आरम्भ होते हैं जब हम प्रभु से दूर होते हैं । मेरा हृदय प्रभु का ध्रुवपद है तो उस अमृतप्रभु के रक्षण में मुझे कष्ट कैसे हो सकता है? 

    २.मेरा यह पृथिवीरूप शरीर (अनृक्षरा) - कण्टकों से रहित हो [अक्षरः - कण्टक] । इसमें सुख के विनाशक तत्त्वों का अभाव हो । इन कण्टकों के अभाव में मैं निरन्तर उन्नतिशील बनूं । 

    ३. (निवेशनी) - यह शरीररूपी पृथिवी सब दिव्य शक्तियों [देवपत्नियों] की निवासस्थानभूत हो ।

    ४. इस प्रकार यह शरीर हमें (सप्रथः) - सब शक्तियों के विस्तार से युक्त (शर्म) - शरण [गृह] को (यच्छ) - दें , अर्थात् यह शरीर मेरा ऐसा घर हो जिसमें सब शक्तियों का उचित विस्तार हो । 

    भावार्थ

    भावार्थ - यह शरीररूपी पृथिवी ' सुखद - कण्टकरहित - उत्तम निवासवाली व विस्तृत शक्तियों की शरणभूत' हो । 

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    विषय

    पृथ्वी के दृष्टान्त से स्त्री का वर्णन

    भावार्थ

    हे ( पृथिवि ) पृथिवि ! तू ( स्योना ) सुखप्रद, ( अनृक्षरा ) कांटों से और दुःखप्रद शत्रुओं से रहित, ( निवेशनी ) प्रजा के योग्य, ( भव ) हो । तू ( सप्रथः ) विस्तृत अवकाश और ऐश्वर्य से युक्त ( नः ) हमें ( शर्म ) शरण, सुख ( यच्छ ) प्रदान कर । स्त्रीपक्ष में—हे पृथिवी के समान विशाल हृदय और गुणों वाली एवं उसके समान बीज धारण में समर्थ ! तू ( अनुक्षरा ) हृदयवेधक, संतापजनक दुर्गुण दुर्वचनों से रहित घर बसाने वाली, सुखजनक हो । हमें विस्तृत, यशयुक्त सुख शरण प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    ऋक्षरः – कण्टकः । ऋच्छतेः । कंतपो वा कंततेर्वा स्यातू गतिकर्मणः उद्गत तमो भवति । इति षष्ठो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ही भूमी सर्व मूर्तिमान पदार्थ राहण्याचे स्थान असून, अनेक प्रकारचे सुख देणारी व अनेक रत्ने प्राप्त करून देणारी आहे हे माणसांनी जाणावे. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Dear green earth, beautiful, free from thorns of sufferance, wide expansive happy haven for all, give us a happy home of pleasure and delight.

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    Subject of the mantra

    What for this earth is and what kind of it is, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (iyam)=Which, (pṛthivi)=earth expanding for giving pleasure, (ya)=that, (syonā)=giving pleasure, [aur]=and, (anṛkṣarā)=not having painful thorns etc. (niveśanī)=having no painful prickets etc. (bhavati) it happens, (sā)=that earth (naḥ)=for us, (saprathaḥ)= is one that can be comfortably entered, (śarma)=excellent delight, (yaccha)= gives rewards etc.

    English Translation (K.K.V.)

    This earth, which is expanding for giving pleasure and not having painful thorns etc., is one that can be comfortably entered. That land gives best happiness and rewards etc. to us with expansive, pleasurable substances.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Not knowing the qualities through the study of earth science, it should be known that the land is the place of residence of all embodied things and is the provider of many types of pleasures and provides many gems.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of the earth is taught in the fifteenth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The earth which is free from thorns and pits, vast and giver of vast happiness, the resting place for all durable substances gives us delight and pleasure by providing fruits and corns etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (स्योना) सुखहेतु: स्योनमिति सुखनामसु पठितम् (निघ० ३.६ ) = Source of happiness. (पृथिवि) विस्तीर्णा सती विशालसुखदात्री भूमिः अत्र पुरुषव्यत्ययः । (भव ) भवति अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च । = Vast and giver of vast happiness. (अनृक्षरा ) अविद्यमाना ऋक्षरा: दुःखप्रदाः कण्टकादयो यस्यां सा । = Free from thrones and pits. (यच्छ) यच्छति फलादिभिर्ददाति = Provides fruits etc. (सप्रथ:) यत् प्रथोभिर्विस्तृतैः पदार्थैः सह वर्तते । = Vast or spread wide.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When this earth is perfectly known by men with the help of Geology and other sciences, it becomes the source of happiness, the dwelling place of embodied beings and provider of many jewels and diamonds.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has pointed out in his commentary that there is change of person and case etc. but that is just to make clear, lest ignorant or ordinary persons may not labor under the delusion that there is prayer addressed to the inanimate earth. But as in the Vedas, as well as in all poetry, inanimate objects are addressed as if they had life. अचेतनान्यपि चेतनवत् स्तूयन्ते (निरुक्ते अ० ७ ) It is not quite necessary to suppose there is or change of person, case, gender etc. As a matter of fact, there are many such changes (व्यत्यय) pointed out in Rishi Dayananda's commentary just for the sake of clarification. 2. Rishi Dayananda himself has given another interpretation to this in Yajurveda 36.13. where the meaning is with regard to the wife, taking the apparent meaning of earth as a simile. There the meaning is as follows- O wife, calm like the earth, just as the earth free from thorns and pits, the resting place for all durable substances, is comfortable to us, so should you be. Just as wide earth gives us place for dwelling, so should you delight affording, give us domestic happiness. To quote Rishi Dayananda's own words- हे पृथिवीव वर्तमाने स्त्रि । यथाऽनृक्षरा निवेशनी पृथिवी नो भवति तथा त्वं भव सा समथा न शर्म यच्छतु तथा स्योना त्वं नः शर्म यच्छ । It is clear that in this case, there is no need of any change in person, case or gender etc.

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