Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 16
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विष्णुर्देवो वा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अतो॑ दे॒वा अ॑वन्तु नो॒ यतो॒ विष्णु॑र्विचक्र॒मे। पृ॒थि॒व्याः स॒प्त धाम॑भिः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अतः॑ । दे॒वाः । अ॒व॒न्तु॒ । नः॒ । यतः॑ । विष्णुः॑ । वि॒ऽच॒क्र॒मे । पृ॒थि॒व्याः । स॒प्त । धाम॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे। पृथिव्याः सप्त धामभिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतः। देवाः। अवन्तु। नः। यतः। विष्णुः। विऽचक्रमे। पृथिव्याः। सप्त। धामऽभिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 16
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पृथिव्यादीनां रचको धारकश्च कोऽस्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    यतोऽयं विष्णुर्जगदीश्वरः पृथिवीमारभ्य प्रकृतिपर्य्यन्तैः सप्तभिर्धामभिः सह वर्त्तमानाँल्लोकान् विचक्रमे रचितवानत एतेभ्यो देवा विद्वांसो नोऽस्मानवन्त्वेतद्विद्यामवगमयन्तु॥१६॥

    पदार्थः

    (अतः) अस्मात् कारणात् (देवाः) विद्वांसोऽग्न्यादयो वा (अवन्तु) अवगमयन्तु प्रापयन्ति वा पक्षे लडर्थे लोट्। (नः) अस्मान् (यतः) यस्मादनादिकारणात् (विष्णुः) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स परमेश्वरः। विषेः किच्च। (उणा०३.३८) अनेन ‘विष्लृ’धातोर्नुः प्रत्ययः किच्च। (विचक्रमे) विविधतया रचितवान् (पृथिव्याः) पृथिवीमारभ्य। पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्म्मण्युपसंख्यानम्। (अष्टा०२.३.२८) अनेन पञ्चमी। (सप्त) पृथिवीजलाग्निवायुविराट्परमाणुप्रकृत्याख्यैः सप्तभिः पदार्थैः। अत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्लुक्। (धामभिः) दधति सर्वाणि वस्तूनि येषु तैः सह॥१६॥

    भावार्थः

    नैव विदुषामुपदेशेन विना कस्यचिन्मनुष्यस्य यथावत्सृष्टिविद्या सम्भवति नैवेश्वरोत्पादनेन विना कस्यचिद् द्रव्यस्य स्वतो महत्त्वपरिमाणेन मूर्त्तिमत्त्वं जायते नैवैताभ्यां विना मनुष्या उपकारान् ग्रहीतुं शक्नुवन्तीति बोध्यम्। विलसनाख्येनास्य मन्त्रस्य ‘पृथिव्यास्तस्मात्खण्डादवयवाद्विष्णोः सहायेन देवा अस्मान् रक्षन्तु’ इति मिथ्यात्वेनार्थो वर्णित इति विज्ञयेम्॥१६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (5)

    विषय

    अब पृथिवी आदि पदार्थों का रचने और धारण करनेवाला कौन है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    (यतः) जिस सदा वर्त्तमान नित्य कारण से (विष्णुः) चराचर संसार में व्यापक जगदीश्वर (पृथिव्याः) पृथिवी को लेकर (सप्त) सात अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, विराट्, परमाणु और प्रकृति पर्य्यन्त लोकों को (धामभिः) जो सब पदार्थों को धारण करते हैं, उनके साथ (विचक्रमे) रचता है (अतः) उसी से (देवाः) विद्वान् लोग (नः) हम लोगों को (अवन्तु) उक्त लोकों की विद्या को समझते वा प्राप्त कराते हुए हमारी रक्षा करते रहें॥१६॥

    भावार्थ

    विद्वानों के उपदेश के विना किसी मनुष्य को यथावत् सृष्टिविद्या का बोध कभी नहीं हो सकता। ईश्वर के उत्पादन करने के विना किसी पदार्थ का साकार होना नहीं बन सकता और इन दोनों कारणों के जाने विना कोई मनुष्य पदार्थों से उपकार लेने को समर्थ नहीं हो सकता। और जो यूरोपदेशवाले विलसन साहिब ने पृथिवी उस खण्ड के अवयव से तथा विष्णु की सहायता से देवता हमारी रक्षा करें यह इस मन्त्र का अर्थ अपनी झूँठी कल्पना से वर्णन किया है, सो समझना चाहिये॥१६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अब पृथिवी आदि पदार्थों का रचने और धारण करनेवाला कौन है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यतः अयं विष्णुः जगदीश्वरः पृथिवीम् आरभ्य प्रकृतिपर्य्यन्तैः सप्तभिः धामभिः सह वर्त्तमानान् लोकान् विचक्रमे रचितवान् अतः एतेभ्यः देवा विद्वांसः (नः-अस्मान्) अवन्तु एतत् विद्याम् अवगमयन्तु॥१६॥

    पदार्थ

    (यतः) यस्मादनादिकारणात्= जिस सदा वर्त्तमान नित्य कारण से, (अयम्)=यह, (विष्णुः) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स परमेश्वरः=चराचर संसार में व्यापक जगदीश्वर, (पृथिवीम्)=पृथिवी से, (आरभ्य)=आरम्भ करके, (प्रकृतिपर्य्यन्तैः)=प्रकृति पर्य्यन्त= प्रकृति तक, (सप्तभिः) पृथिवीजलाग्निवायुविराट्परमाणुप्रकृत्याख्यैः सप्तभिः पदार्थैः=पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, विराट्, परमाणु और प्रकृति नाम के सात पदार्थों को, (धामभिः) दधति सर्वाणि वस्तूनि येषु तैः=जो सब पदार्थों में धारण करते हैं, उनके (सह)=साथ, (वर्त्तमानान्)=उपस्थित, (लोकान्)=लोकों को, (विचक्रमे) विविधतया रचितवान्=विविध प्रकार से रचा है, (एतेभ्यः)=इनके लिये, (अतः) अस्मात् कारणात्=इस कारण से, (विद्वांसः)=विद्वान् लोग,  (नः-अस्मान्)=हमारे लिये, (अवन्तु) अवगमयन्तु प्रापयन्ति वा=विद्या को समझते हुए हमारी रक्षा करते रहें (एतत्)=इस, (विद्याम्)=विद्या को, (अवगमयन्तु)=समझते हुए॥१६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    न ही विद्वानों के उपदेश के विना किसी मनुष्य को यथावत् सृष्टिविद्या का बोध सम्भव नहीं हो सकता है। न ही ईश्वर के उत्पादन करने विना किसी पदार्थ का अपने मूर्त्तिरूप में अस्तित्व नहीं बन सकता है और न ही इन दोनों  के विना  मनुष्य पदार्थों से उपकार लेने को समर्थ हो सकता है, ऐसा समझना चाहिए। विलसन नाम के यूरोपीय विद्वान् द्वारा इस मन्त्र का ऐसा मिथ्या से अनर्थ वर्णित किया गया है-“ पृथिवी के उस खण्ड के अवयव से तथा विष्णु की सहायता से देवता हमारी रक्षा करें ” ॥१६॥ 

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणियाँ-इस मन्त्र में सात पदार्थों का वर्णन किया गया है- पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, विराट्, परमाणु और प्रकृति। प्रकृति और विराट् को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जाता है।
    (1) प्रकृति- विश्व की रचना या सृष्टि करने वाली मूल नियामक तथा संचालन शक्ति को प्रकृति कहते हैं।
    (2) विराट्- ब्रह्माण्डरूपः= सर्व समरूप जगत्। विराट् के अनेक अर्थ हैं, परन्तु वर्तमान सन्दर्भ में सकल ब्रह्माण्ड ही विराट् है ॥१६॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यतः) जिस सदा वर्त्तमान नित्य कारण से (अयम्) इस (विष्णुः) चराचर संसार में व्यापक जगदीश्वर (पृथिवीम्) पृथिवी से (आरभ्य) आरम्भ करके (सप्तभिः) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, विराट्, परमाणु और प्रकृति तक सात (प्रकृतिपर्य्यन्तैः) प्रकृति तक, (धामभिः) जो सब पदार्थों को धारण करते हैं, उनके (सह) साथ (वर्त्तमानान्) उपस्थित होकर (लोकान्) लोकों को (विचक्रमे) रचा है, (अतः) इस कारण से (एतेभ्यः) इनके लिये (विद्वांसः) विद्वान् लोग  (नः) हमारे लिये (एतत्) इस (विद्याम्) विद्या को समझते हुए (अवन्तु) हमारी रक्षा करते रहें॥१६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अतः) अस्मात् कारणात् (देवाः) विद्वांसोऽग्न्यादयो वा (अवन्तु) अवगमयन्तु प्रापयन्ति वा पक्षे लडर्थे लोट्। (नः) अस्मान् (यतः) यस्मादनादिकारणात् (विष्णुः) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स परमेश्वरः। विषेः किच्च। (उणा०३.३८) अनेन 'विष्लृ'धातोर्नुः प्रत्ययः किच्च। (विचक्रमे) विविधतया रचितवान् (पृथिव्याः) पृथिवीमारभ्य। पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्म्मण्युपसंख्यानम्। (अष्टा०२.३.२८) अनेन पञ्चमी। (सप्त) पृथिवीजलाग्निवायुविराट्परमाणुप्रकृत्याख्यैः सप्तभिः पदार्थैः। अत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्लुक्। (धामभिः) दधति सर्वाणि वस्तूनि येषु तैः सह॥१६॥
    विषयः- अथ पृथिव्यादीनां रचको धारकश्च कोऽस्तीत्युपदिश्यते।

     अन्वयः- यतोऽयं विष्णुर्जगदीश्वरः पृथिवीमारभ्य प्रकृतिपर्य्यन्तैः सप्तभिर्धामभिः सह वर्त्तमानाँल्लोकान् विचक्रमे रचितवानत एतेभ्यो देवा विद्वांसो नोऽस्मानवन्त्वेतद्विद्यामवगमयन्तु॥१६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- नैव विदुषामुपदेशेन विना कस्यचिन्मनुष्यस्य यथावत्सृष्टिविद्या सम्भवति नैवेश्वरोत्पादनेन विना कस्यचिद् द्रव्यस्य स्वतो महत्त्वपरिमाणेन मूर्त्तिमत्त्वं जायते नैवैताभ्यां विना मनुष्या उपकारान् ग्रहीतुं शक्नुवन्तीति बोध्यम्। विलसनाख्येनास्य मन्त्रस्य 'पृथिव्यास्तस्मात्खण्डादवयवाद्विष्णोः सहायेन देवा अस्मान् रक्षन्तु' इति मिथ्यात्वेनार्थो वर्णित इति विज्ञयेम्॥१६॥ 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे (देवाः)  विद्वानो! (विष्णुः) सर्वत्र व्यापक परमेश्वर ने सब जीवों को पाप तथा पुण्य का फल भोगने और सब पदार्थों के स्थित होने के लिए, पृथिवी से लेके (सप्त) सप्तविध (धामभिः) धाम, अर्थात् ऊँचे-नीचे सात प्रकार के लोकों को बनाया तथा गायत्र्यादि सात छन्दों से विस्तृत विद्यायुक्त वेद को भी बनाया, उन लोकों के साथ वर्त्तमान व्यापक ईश्वर ने (यतः) जिस सामर्थ्य से सब लोकों को रचा है, (अतः सामर्थ्यात्) उस सामर्थ्य से हम लोगों की रक्षा करे। हे विद्वानो! तुम लोग भी उसी विष्णु के उपदेश से हमारी रक्षा करो। कैसा है वह विष्णु ? जिसने इस सब जगत् को (विचक्रमे) विविध प्रकार से रचा है, उसकी नित्य भक्ति करो ॥ ११ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पृथिवी के सप्तधाम

    पदार्थ

    १. जब जीव शरीर , मन व मस्तिष्क - तीनों की उन्नतियों को करनेवाला होता है , तब वह इस व्यापक उन्नति के कारण - तीन कदमों को रखने के कारण ' विष्णु' कहलाता है । (यतः) - क्योंकि (विष्णुः) - इस व्यापक उन्नति करनेवाले ने (पृथिव्याः) - इस शरीररूप पृथिवी के (सप्त) - सात (धामभिः) - तेजों के हेतु से (विचक्रमे) - विशेष पुरुषार्थ किया है , अतः इसलिए (देवाः) - संसार के सूर्यादि सब देव (नः) - हमें (अवन्त) - रक्षित करें । 

    २. स्वास्थ्य का अभिप्राय यही होता है कि बाह्य देवों की शरीर के अन्तः स्थित देवांशों से अनुकूलता हो । जब तक यह अनुकूलता रहती है , रोग नहीं आते । इस अनुकूलता के समाप्त होते ही रोग शरीर को घेरने लगते हैं । 

    ३. इन ' जल - वायु' आदि देवों के अनुकूल न होने पर शरीर में ' रस , रुधिर , मांस , अस्थि , मज्जा , मेदस् व वीर्य' आदि सप्त धातुओं का ठीक निर्माण नहीं होता । ये सात धातुएँ ही यहाँ मन्त्र में ' पृथिवी के सात धाम - तेज' कहे गये हैं । सारी उन्नति इन रसादि के ठीक निर्माण पर ही निर्भर करती है , इसलिए व्यापक उन्नति करनेवाला इस पृथिवी - इन सातों तेजों को ठीक करने का प्रयत्न करता है । 

    ४. जो भी ऐसा प्रयत्न करते हैं वे देवों के रक्षण के पात्र होते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम पृथिवी - शरीर के सातों धामों के द्वारा ' शरीर , मन व मस्तिष्क' की व्यापक उन्नति करें और देवों के रक्षण के पात्र हों । 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    परमेश्वर, राजा

    भावार्थ

    ( यतः) जिस अनादि तत्व से ( विष्णुः ) व्यापक परमेश्वर ( पृथिव्याः ) पृथिवी से प्रारम्भ कर ( सप्त धामभिः ) समस्त लोकों को धारण करने वाले सात पदार्थों से ( वि चक्रमे ) इन लोकों को रचता है ( देवाः ) विद्वान् गण अथवा प्रकृति के विकार पृथिवी आदि ( अतः ) उसे ही मूल कारण द्वारा ( नः ) हमें (अवन्तु ) रक्षा करें, और उसका ज्ञान करावें । राजा के पक्ष में—(विष्णुः) व्यापक सामर्थ्यवान् राजा ( सप्त धामभिः ) पृथिवी से आदि लेकर सात धारण करने वाले तेजः सामर्थ्यों से युक्त होकर ( यतः विचक्रमे ) जिस कारण से पराक्रम करे उसी निमित्त ( देवाः ) विद्वान् राज्यधिकारी और सैनिक जन हमारी रक्षा करें । अर्थात् राजा के विजय और प्रजा की रक्षा का एक ही उद्देश्य है । पृथिवी आदि पांच भूत, परमाणु शौर प्रकृति ये सात धातु हैं । राष्ट्रपक्ष में स्वामी, अमात्य, सुहृत्, दुर्ग, राष्ट्र कोष, और बल ये सात प्रकृति हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    विद्वानांच्या उपदेशाशिवाय कोणत्याही माणसाला यथायोग्य सृष्टिविद्येचा बोध कधीही होत नाही. ईश्वराने उत्पन्न केल्याशिवाय कोणताही पदार्थ साकार होऊ शकत नाही. ही दोन्ही कारणे जाणल्याशिवाय कोणताही माणूस पदार्थांचा लाभ घेण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. ॥ १६ ॥

    टिप्पणी

    युरोपियन विल्सनसाहेबांनी ‘पृथ्वी त्या खंडाच्या अवयवाने व विष्णूच्या साह्याने देवतेने आमचे रक्षण करावे’ हा या मंत्राचा अर्थ विपरीत केलेला आहे, हे ओळखावे. ॥ १६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    हे (देवा) विद्वानांनो! (विष्णु) सर्वत्र व्याप्त असलेल्या परमेश्वराने सर्व जीवांना पाप व पुण्य भोगण्यासही व सर्व पदार्थाना स्थिर ठेवण्यासाठी पृथ्वी ते सप्तलोक यांची रचना केलेली आहे. (धामभिः) अर्थात् उंच सखल स्थानांची संयुक्त रचना केलेली आहे. तसेच गायत्री इत्यादी सात छंदांनी विरतत विद्यायुक्त वेदही निर्माण केलेले आहेत.त्या लोकात व्याप्त असलेल्या परमेश्वराने (यतः) ज्या सामर्थ्याने हे लोक निर्माण केलेले आहेत (अतः) , त्या सामर्थ्याने त्याने आमचे रक्षण करावे. हे विद्वानांनो ! तुम्हीही त्याच विष्णूच्या उपदेशाने आमचे रक्षण करा. तों विष्णु कसा आहे ? ज्याने हे जग (विचक्रमे) विविध प्रकारे निर्मिलेले आहे अशा ईश्वराची सदैव भक्ती करा ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Meaning

    May the scholars of light and vision favour and protect us with knowledge of the seven stages of creation from earth to Prakrti through which Vishnu, lord omnipresent, created the universe (of five elements, Virat and Prakriti).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Purport

    O the learned scholars! You should know that the Omnipresent God has created seven regions of the world including the earth, high and low places, in order to bear the fruits of bad and good deeds committed by living being and also for accommodating all the other objects of this creation. He also reavealed the Vedas composed in seven meters like Gayatri etc., which are a store-house of vast knowledge. The power with which He has manifested all the regions, with with the same efficacy He should protect us. O wise men ! You should protect us by imparting the teachings of Lord Vişnu. What like is that Vişnu? He is that who has created the whole universe in different ways. Always worship Him alone. 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Now, who creates and contains earth et cetera substances, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    and immobile universe, (pṛthivīm)=from earth, (ārabhya)=beginning (prakṛtiparyyantaiḥ)=expanded upto prakṝti, (saptabhiḥ)= earth, water, fire, air, virāṭ, atoms and upto prakṝti, seven, (dhāmabhiḥ)=those contain all objects, their, (saha)=together with, (varttamānān)=remains present, (lokān)= the worlds, (vicakrame)=has created, (ataḥ)=so, (etebhyaḥ)=for these, (vidvāṃsaḥ)=scholars, (naḥ)=for us, (etat)=this, (vidyām)=understanding knowledge, (avantu)=must protect us.

    English Translation (K.K.V.)

    For which ever-present eternal cause this pervading Lord of the universe, beginning with the earth, water, fire, air, virat, atoms and up to prakriti, the seven, which hold all matters. He remains present with them and has created the worlds. For this reason, let the scholars for them continue to protect us, understanding this knowledge for us.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without the teachings of the scholars, it is not possible for any human being to have the realization of creationism. No matter can exist in its embodied form without the creation of God and without both of these a human being cannot be able to take help from objects, it should be understood that. The translation of this mantra has been described as false by a European scholar named Wilson as - "May the gods protect us from the elements of that part of the earth and with the help of Vishnu".

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Seven substances have been described in this mantra– Earth, Water, Fire, Vayu, Viraat, Atom and Prakṛti. Of these seven Prakṛti and Virāṭ are defined as follows. (1) Prakṛti- The basic regulator and governing power that created the world is called Prakṛti. (2) Virāṭ- Brahmāṇḍarūpaḥ=all equal worlds. Virat has many meanings, but in the present context, the entire galaxy is Virāṭ.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who is the Protector and Sustainer of the earth and other worlds is taught in the sixteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May wise men protect us by giving instructions about the all-pervading God who has made these worlds with seven substances that uphold all, consisting of the earth, water, fire, air, Virat, atom and Matter.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विष्णु:) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स परमेश्वरः । विषेः किञ्च उणा० ३.३८ अनेन विष्लधातोः नः-प्रत्ययः किञ्च । All pervading God. (विचक्रमे) रचितवान् = Created. (सप्त) पृथिवी जलाग्निवायुविराट्परमाणुप्रकृत्याख्यैः सप्तभिः पदार्थैः अत्र सुपां लुक् इति विभक्तेर्लुक् (धामभिः) दधति सर्वाणि भूतानि येषु तैः = The sustainers or upholders of all substances.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    No one can get the knowledge of the science of creation without the instruction given by the wise. No substance can be produced or can get solidity with out God's creation. Without God and the substances created by Him, man can not derive benefit from them. Prof. Wilson's translation of the Mantra that “May the Gods preserve us (from that portion) of the earth whence Vishnu (aided) by the seven Metres Stepped is erroneous.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda in his commentary on this Mantra has pointed out the mistake in Prof. Wilsons' English translation. Griffith's is still worse which is as follows-- The Gods be gracious unto us even from the place whence Vishnu strode through the seven regions of earth. After giving this wrong translation in the text of his translation, Griffith admits in the foot-note- "The meaning of the stanza is obscure" Such is the wonderful scholarship of some of these most prominent orientalists of the West. Rishi Dayananda was therefore right in rejecting their authority.

    इस भाष्य को एडिट करें

    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषय

    व्याखान

    हे देवाः विद्वान्वर्ग ! विष्णु = सर्वत्र व्यापक परमेश्वर ले समस्त जीव हरु लाई पाप तथा पुण्य को फल भोग्न र सम्पूर्ण पदार्थ हरु मा पृथिवी देखी लिएर सप्त= सप्तविध अर्थात् = सातप्रकार का धामभिः धाम अर्थात् अग्ला होचा सात प्रकार का लोक हरु लाई बनाउनु भयो तथा गायत्र्यादि सात छन्द हरु ले विस्तृत विद्यायुक्त वेद पनि बनाउनु भयो, ती लोक हरु मा वर्तमान व्यापक ईश्वर ले यतः = जुन सामर्थ्यद्वारा सबै लोक हरु लाई रचनु भएको =छ। अतः सामर्थ्यात्=तेसै सामर्थ्य ले हाम्रो रक्षा गरून् । हे विद्वज्जन! तपाईं हरु ले पनि उसै विष्णु को उपदेश द्वारा हाम्रो रक्षा गर्नु होस् । कस्तो छ तो विष्णु ? जसले यो सबै जगत्लाई विचक्रमे = विविध प्रकारले रचेको छ, तेसैको नित्य भक्ति गर ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top