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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 9
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्ने॒ पत्नी॑रि॒हाव॑ह दे॒वाना॑मुश॒तीरुप॑। त्वष्टा॑रं॒ सोम॑पीतये॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । पत्नीः॑ । इ॒ह । आ । व॒ह॒ । दे॒वाना॑म् । उ॒श॒तीः । उप॑ । त्वष्टा॑रम् । सोम॑ऽपीतये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने पत्नीरिहावह देवानामुशतीरुप। त्वष्टारं सोमपीतये॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। पत्नीः। इह। आ। वह। देवानाम्। उशतीः। उप। त्वष्टारम्। सोमऽपीतये॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरग्निगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    योऽयमग्निः सोमपीतये देवानामुशतीः पत्नीस्त्वष्टारं चोपावह समीपे प्रापयति तस्य प्रयोगो यथावत्कर्त्तव्यः॥९॥

    पदार्थः

    (अग्ने) अग्निर्भौतिकः (पत्नीः) पत्युर्नो यज्ञसंयोगे। (अष्टा०४.१.३३) अनेन ङीप् प्रत्ययो नकारादेशश्च। इयं वै पृथिव्यदितिः सेयं देवानां पत्नी। (श०ब्रा०५.२.५.४) देवानां पत्न्य उशत्योऽवन्तु नः। प्रावन्तु नस्तुजयेऽपत्यजननाय चान्नसंसननाय च। याः पार्थिवासो या अपामपि व्रते कर्मणि ता नो देव्यः सुहवाः शर्म यच्छन्तु शरणम्। अपि च ग्नाः व्यन्तु देवपत्न्य इन्द्राणीन्द्रस्य पत्न्यग्नाय्यग्नेः पत्न्यश्विन्यश्विनोः पत्नी राड् राजते रोदसी रुद्रस्य पत्नी वरुणानी च वरुणस्य पत्नी व्यन्तु देव्यः कामयन्तां य ऋतुः कालो जायानाम्। (निरु०१२.४५-४६) देवानां विदुषां पालनयोग्याऽग्न्यादीनां स्थित्यर्थेयं पृथिवी वर्त्तते तस्माद् दैवपत्नीत्युच्यते यस्मिन् यस्मिन् द्रव्ये या याः शक्तयः सन्ति, तास्तास्तेषां द्रव्याणां पत्न्य इवेत्युच्यन्ते (इह) अस्मिन् शिल्पयज्ञे (आ) समन्तात् (वह) वहति प्रापयति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (देवानाम्) पृथिव्यादीनामेकत्रिंशतः (उशतीः) स्वस्वाधारगुणप्रकाशयन्तीः (उप) सामीप्ये (त्वष्टारम्) छेदनकर्त्तारं सूर्य्यं शिल्पिनं वा (सोमपीतये) सोमानां पदार्थानां पीतिर्ग्रहणं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै॥९॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिर्योऽग्निर्भौतिको विद्युत्पृथिवीस्थसूर्य्यरूपेण त्रिधा वर्त्तमानः शिल्पविद्यासिद्धये पृथिव्यादीनां सामर्थ्यप्रकाशको मुख्यहेतुरस्ति स स्वीकार्य्यः। अत्र शिल्पविद्यायज्ञे पृथिव्यादीनां संयोजनार्थत्वात् तत्तत्सामर्थ्यस्य पत्नीति संज्ञा विहिता॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर अगले मन्त्र में अग्नि के गुणों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    (अग्ने) जो यह भौतिक अग्नि (सोमपीतये) जिस व्यवहार में सोम आदि पदार्थों का ग्रहण होता है, उसके लिये (देवानाम्) इकत्तीस जो कि पृथिवी आदि लोक हैं, उनकी (उशतीः) अपने-अपने आधार के गुणों का प्रकाश करनेवाला (पत्नीः) स्त्रीवत् वर्त्तमान अदिति आदि पत्नी और (त्वष्टारम्) छेदन करनेवाले सूर्य्य वा कारीगर को (उपावह) अपने सामने प्राप्त करता है, उसका प्रयोग ठीक-ठीक करें॥९॥

    भावार्थ

    विद्वानों को उचित है कि जो बिजुली प्रसिद्ध और सूर्य्यरूप से तीन प्रकार का भौतिक अग्नि शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये पृथिवी आदि पदार्थों के सामर्थ्य प्रकाश करने में मुख्य हेतु है, उसी का स्वीकार करें और यह इस शिल्पविद्यारूपी यज्ञ में पृथिवी आदि पदार्थों के सामर्थ्य का पत्नी नाम विधान किया है, उसको जानें॥९॥

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    विषय

    फिर इस मन्त्र में अग्नि के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः अयम् अग्निः सोमपीतये देवानाम् उशतीः पत्नीः त्वष्टारं च उपावह (समीपे प्रापयति) तस्य प्रयोगो यथावत् कर्त्तव्यः॥९॥ 

    पदार्थ

    (यः)=जो, (अयम्)=यह, (अग्निः) अग्निर्भौतिकः= यह भौतिक अग्नि, (सोमपीतये) सोमानां पदार्थानां पीतिर्ग्रहणं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै= व्यवहार में सोम आदि पदार्थों का ग्रहण होता है, उसके लिये, (देवानाम्) पृथिव्यादीनामेकत्रिंशतः=जो पृथिवी आदि इकत्तीस  लोक हैं, उनकी,  (उशतीः) स्वस्वाधारगुणप्रकाशयन्तीः (अग्निर्भौतिकः)=अपने-अपने आधार के गुणों का प्रकाश करनेवाला, (पत्नीः) पत्युर्नो यज्ञसंयोगे=स्त्रीवत् वर्त्तमान अदिति आदि पत्नी, (त्वष्टारम्) छेदनकर्त्तारं सूर्य्यं शिल्पिनं वा=छेदन करनेवाले सूर्य्य वा कारीगर को, (च) और, {उपावह-(समीपे प्रापयति)}=निकट से प्राप्त करता है।  (तस्य)=उसका, (प्रयोगः)=प्रयोग, (यथावत्)=यथावत्, (कर्त्तव्यः)=होना चाहिए॥९॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    विद्वानों के लिए उचित है कि जो तीन प्रकार का  भौतिक अग्नि, पृथिवी स्थित बिजली  और सूर्यरूपी बिजली  हैं, उनको शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये पृथिवी आदि पदार्थों के सामर्थ्य प्रकाश करने में  जो मुख्य साधन है, उसी को स्वीकार करें। इस शिल्पविद्यारूपी यज्ञ में पृथिवी आदि पदार्थों संयोजन करने के सामर्थ्य का पत्नी नाम विधान किया है, उसको जानें ॥९॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- महर्षि द्वारा शिल्पविद्यारूपी यज्ञ में पृथिवी आदि पदार्थों संयोजन करने के सामर्थ्य का नाम पत्नी वर्णित किया गया है।  अथर्ववेद मन्त्र (4.1.33) के अनुसार  पत्नी का अर्थ “द्रव्याणां शक्तयः” अर्थात्  द्रव्यों की शक्तियां है, जो इस मन्त्र में उचित रूप से प्रयुक्त है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो (अयम्) यह (अग्निः) भौतिक अग्नि है, (सोमपीतये) जिससे व्यवहार में सोम आदि पदार्थों का ग्रहण होता है, उसके लिये (देवानाम्) जो पृथिवी आदि इकत्तीस लोक हैं, उनके  (उशतीः) अपने-अपने आधार के गुणों का प्रकाश करनेवाला (अग्निर्भौतिकः) भौतिक अग्नि (पत्नीः) स्त्रीवत् वर्त्तमान अदिति आदि पत्नी (च) और (त्वष्टारम्) छेदन करनेवाले सूर्य्य वा कारीगर को (उपावह) निकट से प्राप्त करता है। (तस्य) उसका (प्रयोगः) प्रयोग (यथावत्)  यथावत् (कर्त्तव्यः) होना चाहिए॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अग्ने) अग्निर्भौतिकः (पत्नीः) पत्युर्नो यज्ञसंयोगे। (अष्टा०४.१.३३) अनेन ङीप् प्रत्ययो नकारादेशश्च। इयं वै पृथिव्यदितिः सेयं देवानां पत्नी। (श०ब्रा०५.२.५.४) देवानां पत्न्य उशत्योऽवन्तु नः। प्रावन्तु नस्तुजयेऽपत्यजननाय चान्नसंसननाय च। याः पार्थिवासो या अपामपि व्रते कर्मणि ता नो देव्यः सुहवाः शर्म यच्छन्तु शरणम्। अपि च ग्नाः व्यन्तु देवपत्न्य इन्द्राणीन्द्रस्य पत्न्यग्नाय्यग्नेः पत्न्यश्विन्यश्विनोः पत्नी राड् राजते रोदसी रुद्रस्य पत्नी वरुणानी च वरुणस्य पत्नी व्यन्तु देव्यः कामयन्तां य ऋतुः कालो जायानाम्। (निरु०१२.४५-४६) देवानां विदुषां पालनयोग्याऽग्न्यादीनां स्थित्यर्थेयं पृथिवी वर्त्तते तस्माद् दैवपत्नीत्युच्यते यस्मिन् यस्मिन् द्रव्ये या याः शक्तयः सन्ति, तास्तास्तेषां द्रव्याणां पत्न्य इवेत्युच्यन्ते (इह) अस्मिन् शिल्पयज्ञे (आ) समन्तात् (वह) वहति प्रापयति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (देवानाम्) पृथिव्यादीनामेकत्रिंशतः (उशतीः) स्वस्वाधारगुणप्रकाशयन्तीः (उप) सामीप्ये (त्वष्टारम्) छेदनकर्त्तारं सूर्य्यं शिल्पिनं वा (सोमपीतये) सोमानां पदार्थानां पीतिर्ग्रहणं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै॥९॥
    विषयः- पुनरग्निगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- योऽयमग्निः सोमपीतये देवानामुशतीः पत्नीस्त्वष्टारं चोपावह समीपे प्रापयति तस्य प्रयोगो यथावत्कर्त्तव्यः॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्वद्भिर्योऽग्निर्भौतिको विद्युत्पृथिवीस्थसूर्य्यरूपेण त्रिधा वर्त्तमानः शिल्पविद्यासिद्धये पृथिव्यादीनां सामर्थ्यप्रकाशको मुख्यहेतुरस्ति स स्वीकार्य्यः। अत्र शिल्पविद्यायज्ञे पृथिव्यादीनां संयोजनार्थत्वात् तत्तत्सामर्थ्यस्य पत्नीति संज्ञा विहिता॥९॥ 

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    विषय

    देवपत्नी आवहन

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - प्रगतिशील व्यक्ति ! तू (इह) - इस मानव - जीवन में (उशतीः) - भले को चाहनेवाली (देवानां पत्नीः) - देवपत्नियों को (उपावह) - समीप प्राप्त करनेवाला हो । शरीर में सब देवों का निवास है - "सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठइवासते" [अ० ११/८/३२] इसमें सब देव इस प्रकार रहते हैं जैसे गोशाला में गौवें । इन सब देवों की शक्तियाँ ही उनकी पत्नियाँ कहलाती हैं । इनके होने पर मनुष्य - जीवन सुखी हो पाता है , अतः उन सब अङ्ग - प्रत्यङ्गों व इन्द्रियों की शक्ति की प्रार्थना की गई है । 

    २. इन शक्तियों की प्राप्ति के लिए ही तू (त्वष्टरम्) - उस सबके निर्माता व दीप्ति के पुञ्ज प्रभु को पुकार , ताकि (सोमपीतये) - सोम की तू रक्षा कर सके । त्वष्टा की पुकार हमें भी त्वष्टा बनाएगी और जब हम निर्माण के कार्यों में लगे होंगे अथवा ज्ञानप्राप्ति में लगकर दीप्ति का पुञ्ज बनने का प्रयत्न करेंगे तो सब प्रकार के विलासों से बचकर सोम का रक्षण कर पाएंगे । इस सोम के रक्षण से हमारे सब अङ्ग सबल होंगे । यह अङ्ग - प्रत्यङ्ग की शक्ति ही देवपत्नी है । इन देवपत्नियों का यहाँ जीवन - यज्ञ में प्राप्त कराने का यही साधन है कि हम प्रभु - उपासन के द्वारा सोम का रक्षण करें । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हे प्रगतिशील जीव ! तू त्वष्टा का उपासक बनकर निर्माण के कार्यों और ज्ञान - प्राप्ति में लग । इससे तू सोम का रक्षण कर पाएगा और सोम - रक्षण से सब इन्द्रियों की शक्ति को प्राप्त करनेवाला होगा । 

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    विषय

    राष्ट्रपालक संस्थाओं और गृहपत्नियों की प्राप्ति ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! अग्रणी राजन् ! ( इह ) इस राष्ट्र में तू ( देवानाम् ) विजय की इच्छा करने वाले वीर पुरुषों की ( उशतीः ) विजय की कामना करने वाली, अथवा तेजस्विनी ( पत्नीः ) राष्ट्र का पालन करने वाली, सेनाओं और परिषदों को प्राप्त कर और (त्वष्टारं) सूर्य के समान तेजस्वी, प्रजापालक प्रजापति राजा को (उप आवह) प्राप्त करा । भौतिक अग्नि के पक्ष में—हे अग्ने ! तू ( देवानां ) दिव्य पदार्थों, गुणों और व्यवहारों के पालन करने वाली शक्तियों का इस शिल्प कार्य में प्राप्त करा और उत्पन्न करने या बनाने योग्य पदार्थों को प्राप्त करने योग्य छेदन भेदन करने वाले शिल्पी को प्राप्त कर । विद्वान् पक्ष में—हे विद्वन् ! ( इह ) इसमें तू ( उशती:) सन्तानों और उत्तम गुणों की कामना वाली ( देवानां पत्नीः आवह ) विद्वान् पुरुषों की स्त्रियों को और ( त्वष्टारं ) वीर्यवान् सूर्य के समान तेजस्वी विद्वान् पुरुष या उनके पयिवों को, या शिल्पियों को ( सोमपीतये ) ऐश्वर्य के भोग के लिये प्राप्त करा ।

    टिप्पणी

    ‘त्वष्टारं’ इति जातावेकवचनम् । अथवा दारावद् पत्नीरिति बहुचनं द्रष्टव्यम् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो प्रसिद्ध अग्नी, विद्युत व सूर्य या तीन प्रकारचा भौतिक अग्नी शिल्पविद्येच्या सिद्धीसाठी पृथ्वी इत्यादी पदार्थ सामर्थ्याच्या प्रकाशाचा मुख्य हेतू आहे. विद्वानांनी त्याचाच स्वीकार करावा व या शिल्पविद्यारूपी यज्ञात पृथ्वी इत्यादी पदार्थांच्या सामर्थ्याला पत्नी नावाने संबोधलेले आहे, हे जाणावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light and life and evolution, bring home to us here those generous energies of heat and light which warmly and profusely feed and promote the life and joy of the earth and other sustaining powers of nature, and bring Tvashta, that divine artificer, who creates beautiful new forms of existence and promotes life.

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    Subject of the mantra

    Again in this mantra, qualities of fire (agni) have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=Which, (ayam)=this, (agniḥ)=physical fire is, (somapītaye)=by whom soma herb etc. are understood in practice, for that, (devānām)=those earth etc. thirty one regions are, (uśatīḥ)=their elucidator of virtues of its own base, (agnirbhautikaḥ)=physical fire, (patnīḥ)=with present wives like Aditi (Godess Aditi) etc. (ca)=and, (tvaṣṭāram) =to the piercing sun or the artisan, (upāvaha)=obtains in the proximity, (tasya)=its, (prayogaḥ)=use, (yathāvat)=precise, (karttavyaḥ)=must be.

    English Translation (K.K.V.)

    Which this physical fire is, by whom Soma herb etc. is understood in practice. For that, those earth et cetera thirty one regions are, their elucidator of virtues of its own base, physical fire with present Patni (ability) like Aditi (Godess Aditi) et cetera and the piercing Sun or the artisan obtain in the proximity. Its use must be precise.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It is appropriate for scholars to accept the three types of physical fire, earth-based electricity and Sun-like electricity, which are the main means to illuminate the power of the earth etc. for the accomplishment of craftsmanship. In this yajan of craftsmanship, the name “Patni” has been given for the ability to combine the earth etc., know that.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The name “Patni” has been described by Maharishi to the form of craftsmanship, the ability to combine earth et cetera. According to the Atharvaveda mantra (4.1.33), the meaning of wife is “dravyāṇāṃ śaktayaḥ” i.e. the powers of the substances, which has been appropriately used in this mantra.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Agni are taught in the next Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The Agni which brings home to us the manifesting protective powers of the earth and other useful things possessing divine attributes for the proper use of all objects, the sun and the artist, should be scientifically and methodically utilized.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पत्नी:) यस्मिन् यस्मिन् द्रव्ये याः याः शक्तयः सन्ति ता: ताः तेषां द्रव्याणां पत्न्य इवेत्युच्यन्ते । The special protective powers of various objects. (उशती:) स्वस्वाधारगुणंप्रकाशयन्तीः = Manifesting their main attributes. (त्वष्टारम्) छेदनकतारं सूर्य शिल्पिनं वा । The piercing sun or the artist.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Learned people should accept the Agni in three forms of the fire, electricity and the sun as the most prominent means of accomplishment of arts and crafts and the manifestation of the powers of the earth and other objects. In this Yajna consisting of artistic activities, the special uniting powers of the earth and other objects have been named as their Patnis or wives so to speak.

    Translator's Notes

    Quoting from the Nirukta of the sage Yaskacharya (Chap. 12) Rishi Dayananda has stated that the protective special powers of the earth, sun, moon, fire and other objects are metaphorically called their Patnis or wives. Sayanacharya, Wilson, Griffith and other translators of the Vedas have not understood this Vedic principle and have taken Agnaayi, Varunani Rudrani and others as the wives of the Gods. Wilson Translates the Mantra as "Agni, bring here the loving wives of the gods" etc. while Wilson uses “gods" in small letters, Griffith here as elsewhere translates the word देवा: as the Gods and renders it into English as 'O Agni, hither bring to us the willing spouses of the Gods." Such translation is entirely erroneous and misleading. उशती: is from वश-कान्तौ Here it is to be taken in the sense of manifesting the special attributes.

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