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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    न॒हि वा॒मस्ति॑ दूर॒के यत्रा॒ रथे॑न॒ गच्छ॑थः। अश्वि॑ना सो॒मिनो॑ गृ॒हम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । वा॒म् । अस्ति॑ । दू॒र॒के । यत्र॑ । रथे॑न । गच्छ॑थः । अश्वि॑ना । सो॒मिनः॑ । गृ॒हम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः। अश्विना सोमिनो गृहम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि। वाम्। अस्ति। दूरके। यत्र। रथेन। गच्छथः। अश्विना। सोमिनः। गृहम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    एतं कृत्वाऽश्विनोर्योगेन किं भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे रथानां रचयितृचालयितारौ युवां यत्राश्विना रथेन सोमिनो गृहं गच्छथस्तत्र दूरस्थमपि स्थानं वा युवयोर्दूरके नह्यस्ति॥४॥

    पदार्थः

    (नहि) प्रतिषेधार्थे (वाम्) युवयोः (अस्ति) भवति (दूरके) दूर एव दूरके। स्वार्थे कन्। (यत्र) यस्मिन्। ऋचि तुनुघ० (अष्टा०६.३.१३३) इति दीर्घः। (रथेन) विमानादियानेन (गच्छथः) गमनं कुरुतम्। लट् प्रयोगोऽयम्। (अश्विना) अश्विभ्यां युक्तेन (सोमिनः) सोमाः प्रशस्ताः पदार्थाः सन्ति यस्य तस्य। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (गृहम्) गृह्णाति यस्मिंस्तत्॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यतोऽश्विवेगयुक्तं यानमतिदूरमपि स्थानं शीघ्रं गच्छति तस्मादेताभिरेतन्नित्यमनुष्ठेयम्॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    इसको करके अश्वियों के योग से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे रथों के रचने वा चलानेहारे सज्जन लोगो ! तुम (यत्र) जहाँ उक्त (अश्विना) अश्वियों से संयुक्त (रथेन) विमान आदि यान से (सोमिनः) जिसके प्रशंसनीय पदार्थ विद्यमान हैं, उस पदार्थविद्या वाले के (गृहम्) घर को (गच्छथः) जाते हो, वह दूरस्थान भी (वाम्) तुमको (दूरके) दूर (नहि) नहीं है॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस कारण अग्नि और जल के वेग से युक्त किया हुआ रथ अति दूर भी स्थानों को शीघ्र पहुँचाता है, इससे तुम लोगों को भी यह शिल्पविद्या का अनुष्ठान निरन्तर करना चाहिये॥४॥

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    विषय

    इसको करके अश्वियों के योग से क्या होता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे रथानां रचयितृचालयितारौ युवां यत्र अश्विना रथेन सोमिनो गृहं गच्छथः तत्र दूरस्थम् अपि स्थानं वा युवयोः दूरके नहि अस्ति॥४॥

    पदार्थ

    हे (रथानाम्)  विमानादियानानाम्= विमान आदि यान के, (रचयितृचालयितारौ)=निर्माण कर चलाने वालों! (युवाम्)=तुम दोनों, (यत्र)=जहाँ उक्त, (अश्विना)=अग्नि और जल से संयुक्त, (रथेन) विमानादियानेन=विमान आदि यान से, (सोमिनः) सोमाः प्रशस्ताः पदार्थाः सन्ति यस्य तस्य= जिसके प्रशंसनीय पदार्थ विद्यमान हैं, उस पदार्थविद्या वाले के, (गृहम्) गृह्णाति यस्मिंस्तत्=वह स्थान जहाँ से वह गृहण किया जाता है, (गच्छथः) गमनं कुरुतम्=जाते हो, (तत्र)=उस स्थान से, (दूरस्थम्)=दूर स्थित, (स्थानम्)=स्थान को, (अपि)=भी, (वा)=अथवा, (युवयोः)=तुम दोनों, (दूरके) दूर एव दूरके= दूर, (नहि) प्रतिषेधार्थे=नहीं, (अस्ति) भवति=है॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    हे मनुष्यो!  जिस कारण अग्नि और जल के वेग से युक्त किया हुआ रथ अति दूर भी स्थानों को शीघ्र पहुँचाता है, इससे तुम लोगों को भी यह शिल्पविद्या का अनुष्ठान निरन्तर करना चाहिये॥४॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (रथानाम्) विमान आदि यान के (रचयितृचालयितारौ) निर्माण कर चलाने वालों! (युवाम्) तुम दोनों (यत्र) जहाँ उक्त (अश्विना) अग्नि और जल से संयुक्त (रथेन) विमान आदि यान से (सोमिनः)  जिसके प्रशंसनीय पदार्थ विद्यमान हैं, उस पदार्थविद्या वाले के (गृहम्) गृह स्थान जहाँ से वह गृहण किया जाता है (गच्छथः) को जाते हो। (तत्र) उस स्थान से, (दूरस्थम्) दूर स्थित (स्थानम्) स्थान (अपि) भी (वा) अथवा (युवयोः) तुम दोनों से (दूरके)  दूर (नहि) नहीं (अस्ति) है॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नहि) प्रतिषेधार्थे (वाम्) युवयोः (अस्ति) भवति (दूरके) दूर एव दूरके। स्वार्थे कन्। (यत्र) यस्मिन्। ऋचि तुनुघ० (अष्टा०६.३.१३३) इति दीर्घः। (रथेन) विमानादियानेन (गच्छथः) गमनं कुरुतम्। लट् प्रयोगोऽयम्। (अश्विना) अश्विभ्यां युक्तेन (सोमिनः) सोमाः प्रशस्ताः पदार्थाः सन्ति यस्य तस्य। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (गृहम्) गृह्णाति यस्मिंस्तत्॥४॥
    विषयः- एतं कृत्वाऽश्विनोर्योगेन किं भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे रथानां रचयितृचालयितारौ युवां यत्राश्विना रथेन सोमिनो गृहं गच्छथस्तत्र दूरस्थमपि स्थानं वा युवयोर्दूरके नह्यस्ति॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या! यतोऽश्विवेगयुक्तं यानमतिदूरमपि स्थानं शीघ्रं गच्छति तस्मादेताभिरेतन्नित्यमनुष्ठेयम्॥४॥ 

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    विषय

    प्रभु के घर में

    पदार्थ

    १. हम प्राणसाधना करते हुए मन्त्रों के अनुसार [क] सोम - रक्षा में समर्थ होते हैं । [ख] शरीर को नीरोग बनाते हैं । [ग] इन्द्रियों को निर्दोष , [घ] मन को दिव्य , [ङ] तथा मस्तिष्क को ज्ञानोज्ज्वल बनाते हैं । [च] इसके साथ हमारी वाणी मधुर व सूनुत हो जाती है । इन सब साधनाओं का यह परिणाम होना ही चाहिए कि हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनें । इसी बात को प्रस्तुत मन्त्र में इस प्रकार कहते हैं कि हे (अश्विना) - प्राणापानो ! (यत्रा) - जहाँ (सोमिनः) - इस सोम का उत्पादन करनेवाले प्रभु के (गृहम्) - घर को (रथेन) - इस शरीररूप रथ से (गच्छथः) - जाते हो तो वह (वाम्) - आपके लिए (दूरके नहि अस्ति) - दूर नहीं है । 

    २.मन्त्रार्थ में प्रभु को ' सोमी' शब्द से स्मरण करना भी बड़ा भावपूर्ण है । प्रभु सोमी हैं , सोम को हममें उत्पादित करते हैं । इस सोम को यदि हम शरीर में सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते हैं , तो इस प्रयत्न से हम प्रभु का आदर कर रहे होते हैं । प्रभु की प्राप्ति इस सोम - रक्षण के बिना सम्भव नहीं है । इस सोम का रक्षण प्राणसाधना से होता है , अतः कहा गया कि ये प्राणापान ही सोमी प्रभु के घर में हमें ले - जानेवाले होते हैं , उनके लिए यह कार्य कठिन नहीं है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से सोम की रक्षा करके हम उस सोमी प्रभु के घर में पहुँचनेवाले होंगे । 

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    विषय

    दो अश्वी, स्त्री पुरुष, दो उत्तम अधिकारी, राजारानी, अग्नि जल, अध्यात्म में आत्मा, परमात्मा ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विनौ ) विद्याओं और कलाकौशल में पारंगत पुरुषो ! आप दोनों ( यत्र ) जहां भी ( रथेन ) रथ से ( गच्छथः ) जा सकते हो वह ( सोमिनः ) उत्तम ऐश्वर्य के स्वामी के ( गृहं ) गृह, स्थान ( वां ) तुम दोनों के लिए ( दूरके ) दूर ( नहि अस्ति ) ही नहीं है । अध्यात्म में —(१) हे पुरुष ! प्रातः मिलनेवाले परस्पर व्याप्त आत्मा परमात्मा दोनों को अध्यात्म सोम, आत्मानन्द रसपान के लिए हृदय में जागृत कर । ( २ ) वे दोनों उत्तम रसवान् होने से सुरथ हैं, रसयुक्त आनन्दप्रदों में सबसे श्रेष्ठ होने से 'सुरथीतम' हैं । वे ज्ञानयुक्त होने से दिविस्पृक हैं। उनका स्मरण करें । (३) हे आत्माओ ! तुम्हारी जो 'कशा' हृदय को प्रकाशित करने वाली मधुर आनन्द देनेवाली, सत्यज्ञानवाली वाणी या दीप्ति है उससे आत्मा को सेचन करो । ( ४ ) जहां रस या आनन्द के प्रवाह द्वारा ही परमैश्वर्यवान् परमेश्वर के परम स्थान तक प्राप्त होते हो वह फिर तुम दोनों के लिए दूर नहीं । छत्री न्याय से दोनों अश्वी हैं । अन्य विशेषण भी छत्रीन्याय से सुसंगत है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! अग्नी व जलाने वेगयुक्त केलेला रथ (वाहन) अतिदूर स्थानीही तात्काळ पोहोचवितो. त्यासाठी तुम्हीही त्या शिल्पविद्येचे निरंतर अनुष्ठान करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, masters of the celestial chariot, wherever you reach by the chariot, even farthest to the house of the lord of soma wealth, nothing is too far for you.

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    Subject of the mantra

    Performing as stated in last mantra, what happens by combination of aśvi (water and fire), this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (rathānām)=of aeroplanes et cetera, (racayitṛcālayitārau)=drivers after manufacturing. (yuvām)=both of you, (yatra)=where afore said, (aśvinā)=combined with fire and water, (rathena)=by aircratfs etc., (sominaḥ)=whose praiseworthy substances are present, of that material-science, (gṛham)=home place, from where that is taken, (gacchathaḥ)=go there, (tatra)=from that place, (dūrastham)=farthest place, (sthānam)=place, (api)=also, (vā)=in other words, (yuvayoḥ)=by both of you, (dūrake) =far, (nahi)=not, (asti)=is.

    English Translation (K.K.V.)

    O drivers and manufacturers! After manufacturing aircrafts et cetera, both of you go there, where aforesaid aircrafts et cetera combined with fire and water and with their praiseworthy substances are available. Both of you go to the home place of that person of that material-science from where he is accepted. From that place, even the faraway place, in other words all of you are not far away.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O humans! Due to which a chariot with the speed of fire and water reaches very far places quickly, so you should also do this ritual of craftsmanship continuously.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the result of the combination of अश्विनौ is taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O manufactures and drivers of the cars, when with the aero planes or other cars by the combination of fire and water, you go to the house of a man possessing praise worthy articles, there is nothing far away from you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रथेन) विमानादियानेन । = by the car or chariot that is delightful. (अश्विना ) अश्विभ्यां युक्तेन । (सोमिनः) सोमा:- प्रशस्ताः पदार्थाः सन्ति यस्य तस्य । = Of the persons who possess admirable acts. षु प्रसवैश्वर्ययोः ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, because the car possessing the rapidity of fire and water goes even to the most distant places, there is nothing far away for you. You should make proper and methodical use of the fire and water.

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