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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 18
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विष्णुः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑ । प॒दा । वि । च॒क्र॒मे॒ । विष्णुः॑ । गो॒पाः । अदा॑भ्यः । अतः॑ । धर्मा॑णि । धा॒रय॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि। पदा। वि। चक्रमे। विष्णुः। गोपाः। अदाभ्यः। अतः। धर्माणि। धारयन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विष्णुर्जगदीश्वरः किं कृतवानित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    यतोऽयमदाभ्यो गोपा विष्णुरीश्वरः सर्वं जगद्धारयन् संस्त्रीणि पदानि विचक्रमेऽतः कारणादुत्पद्य सर्वे पदार्थाः स्वानि स्वानि धर्माणि धरन्ति॥१८॥

    पदार्थः

    (त्रीणि) त्रिविधानि (पदा) पदानि वेद्यानि प्राप्तव्यानि वा। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् इति लोपः। (वि) विविधार्थे (चक्रमे) विहितवान् (विष्णुः) विश्वान्तर्यामी (गोपाः) रक्षकः। (अदाभ्यः) अविनाशित्वान्नैव केनापि हिंसितुं शक्यः (अतः) कारणादुत्पद्य (धर्माणि) स्वस्वभावजन्यान् धर्मान् (धारयन्) धारणां कुर्वन्॥१८॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्नैवेश्वरस्य धारणेन विना कस्यचिद् वस्तुनः स्थितिः सम्भवति। न चैतस्य रक्षणेन विना कस्यचिद् व्यवहारः सिध्यतीति वेदितव्यम्॥१८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह सर्वव्यापक जगदीश्वर क्या-क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    जिस कारण यह (अदाभ्यः) अपने अविनाशीपन से किसी की हिंसा में नहीं आ सकता (गोपाः) और सब संसार की रक्षा करनेवाला, सब जगत् को (धारयन्) धारण करनेवाला (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन प्रकार के (पदानि) जाने, जानने और प्राप्त होने योग्य पदार्थों और व्यवहारों को (विचक्रमे) विधान करता है, इसी कारण से सब पदार्थ उत्पन्न होकर अपने-अपने (धर्माणि) धर्मों को धारण कर सकते हैं॥१८॥

    भावार्थ

    ईश्वर के धारण के विना किसी पदार्थ की स्थिति होने का सम्भव नहीं हो सकता। उसकी रक्षा के विना किसी के व्यवहार की सिद्धि भी नहीं हो सकती॥१८॥

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    विषय

    फिर वह सर्वव्यापक जगदीश्वर क्या-क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यतः अयम् अदाभ्यः गोपा विष्णुः ईश्वरः सर्वं जगत् धारयन् सन् त्रीणि पदानि वि चक्रमे अतः कारणात् उत्पद्य सर्वे पदार्थाः स्वानि स्वानि धर्माणि धरन्ति॥१८॥

    पदार्थ

    (यतः)=जिस कारण से,  (अयम्)=यह, (अदाभ्यः) अविनाशित्वान्नैव केनापि हिंसितुं शक्यः=अपने अविनाशीपन से किसी को हिंसित नहीं कर सकता है,   (गोपाः) रक्षकः=और सब संसार की रक्षा करनेवाला  है, (विष्णुः) विश्वान्तर्यामी=संसार का अन्तर्यामी, (ईश्वरः)=परमेश्वर, (धारयन्) धारणां कुर्वन्=धारण करनेवाला, (सन्)=करते हुए, (त्रीणि) त्रिविधानि=तीन प्रकार के, (पदा) पदानि वेद्यानि प्राप्तव्यानि वा जाने=जानने और प्राप्त होने योग्य पदार्थों और व्यवहारों का, (वि) विविधार्थे=विविध अर्थों में, (चक्रमे) विहितवान्= निर्माण किया है, (अतः) कारणादुत्पद्य= इसी कारण से, (सर्वे)=सब, (पदार्थाः)=पदार्थों में, (स्वानि)=अपने, (स्वानि)=अपने, (धर्माणि) स्वस्वभावजन्यान्=धर्मों को धारण, (धरन्ति)= धारण करते हैं॥१८॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर के धारण के विना किसी पदार्थ की स्थिति होने का सम्भव नहीं हो सकता है। उसकी रक्षा के विना किसी के व्यवहार की सिद्धि भी नहीं हो सकती, ऐसा जानना चाहिए॥१८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यतः) जिस कारण से,  (अयम्) यह (अदाभ्यः) अपने अविनाशीपन से किसी को हिंसित नहीं कर सकता है   (गोपाः) और सब संसार की रक्षा करनेवाला, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी (ईश्वरः) परमेश्वर (धारयन्+सन्) धारण करते हुए (त्रीणि) तीन प्रकार के (पदा) जानने और प्राप्त होने योग्य पदार्थों और व्यवहारों का (वि)  विविध अर्थों में (चक्रमे)  निर्माण किया है। (अतः) इसी कारण से (सर्वे) सब (पदार्थाः) पदार्थ (स्वानि) अपने (स्वानि) अपने (धर्माणि) धर्मों को (धरन्ति) धारण करते हैं॥१८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्रीणि) त्रिविधानि (पदा) पदानि वेद्यानि प्राप्तव्यानि वा। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् इति लोपः। (वि) विविधार्थे (चक्रमे) विहितवान् (विष्णुः) विश्वान्तर्यामी (गोपाः) रक्षकः। (अदाभ्यः) अविनाशित्वान्नैव केनापि हिंसितुं शक्यः (अतः) कारणादुत्पद्य (धर्माणि) स्वस्वभावजन्यान् धर्मान् (धारयन्) धारणां कुर्वन्॥१८॥
    विषयः- पुनर्विष्णुर्जगदीश्वरः किं कृतवानित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- यतोऽयमदाभ्यो गोपा विष्णुरीश्वरः सर्वं जगद्धारयन् संस्त्रीणि पदानि विचक्रमेऽतः कारणादुत्पद्य सर्वे पदार्थाः स्वानि स्वानि धर्माणि धरन्ति॥१८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्नैवेश्वरस्य धारणेन विना कस्यचिद् वस्तुनः स्थितिः सम्भवति। न चैतस्य रक्षणेन विना कस्यचिद् व्यवहारः सिध्यतीति वेदितव्यम्॥१८॥ 

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    विषय

    धर्मों का धारण

    पदार्थ

    १. इस जीव ने (त्रीणि पदा विचक्रमे) - तीन कदमों को विशेष रूप से रखा है [क] यह (विष्णुः) [विष्लृ व्याप्तौ] - हृदय में व्यापकतावाला बना है - इसने अपने मन को विशाल बनाया है । सारी अपवित्रता ' संकोच' के साथ ही तो रहती है । [ख] (गोपाः) - यह इन्द्रियरूप गौवों की रक्षा करनेवाला ग्वाला बना है । [ग] (अदाभ्यः) - यह रोगों व रोगकृमियों से हिंसित नहीं होता । यह अपने शरीर को नीरोग रखने का प्रयत्न करता है । अस्वस्थ शरीर में किसी भी धर्म का पालन सम्भव नहीं होता । 

    २. इस प्रकार जब जीव तीन कदम रखता है तो अतः इन तीन कदमों को रखने के कारण (धर्माणि) - धर्मों को (धारयन्) - धारण करता हुआ होता है । वेद में यज्ञ ही प्रथम धर्म माना गया है । यज्ञ में तीन भावनाएँ हैं - ' देवपूजा - संगतीकरण - दान' , अर्थात् ' बड़ों का आदर , बराबरवालों से प्रेम तथा छोटों को दयापूर्वक कुछ देना' ही महान् धर्म है । जो व्यक्ति विष्णु , गोपा व अदाभ्य' बनता है वह इन धर्मों का सम्यक् पालन कर पाता है । मन की व्यापकता - इन्द्रियों की आत्मवश्यता व शरीर की नीरोगता के बिना किसी भी धर्म का पालन सम्भव नहीं , अतः आवश्यक है कि हम ' विष्णु , गोपा व अदाभ्य' बनें । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - विशालहृदय , वशेन्द्रिय व नीरोग बनकर हम धर्मों का पालन करनेवाले हों । बड़ों का आदर करें , बराबरवालों से प्रेम से वर्तें , छोटों के प्रति दया की वृत्ति रखें । 

     

     

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    विषय

    विष्णु, परमेश्वर ।

    भावार्थ

    ( अदाभ्यः ) कभी विनाश को न प्राप्त होने वाला, ( गोपाः ) जगत् का रक्षक, ( विष्णुः ) व्यापक परमेश्वर ( धर्माणि ) समस्त धर्मों को ( धारयन् ) धारण करता हुआ (त्रीणि पदा) तीनों प्रकार के जानने योग्य प्राप्त होने योग्य पदार्थों को ( अतः ) इस मूल कारण से ही ( विचक्रमे ) विविध रूपों में बनाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराने धारण केल्याशिवाय कोणत्याही पदार्थाचे अस्तित्त्व टिकू शकत नाही. त्याच्या रक्षणाखेरीज कुणाच्याही व्यवहाराची सिद्धी होऊ शकत नाही. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Vishnu, universal sustainer and unchallengeable protector, fixed the order of the threefold universe of forms, comprehensible, apprehensible and spiritually attainable, and hence the forms abide in and observe the laws of their existence and function.

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    Subject of the mantra

    Then, what does that Omnipresent God do, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yataḥ)=Due to which reason, (ayam)=this, (adābhyaḥ) =Can't hurt anyone with his indestructibility, (gopāḥ)= =protection of the whole world, [aur]=and, (viṣṇuḥ)=inner dweller of the world, (īśvaraḥ)=God, (dhārayan+san)=holding, (trīṇi)=three types of, (padā) = knowable and obtainable substances and behaviors, (vi)=in various meanings, (cakrame)=created, (ataḥ)=due to this reason only, (sarve)=all, (padārthāḥ)=substances, (svāni)=their own, (svāni)=their own, (dharmāṇi)= nature, (dharanti)=include.

    English Translation (K.K.V.)

    For which reason, it cannot do violence to anyone by its destruction and is created in different sense of three kinds of knowable and attainable substances and practices, holding all the worlds, the innermost God of the world. For this reason, all the substances possess their respective nature.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It is not possible for the existence of any substance to be possible without the presence of God. No one's practice can be accomplished without His protection, this should be known.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What did Vishnu or Omnipresent God do is taught in the 18th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Because this inviolable, Protector and Omnipresent God upholds this world consisting of the earth, middle region and heaven (which are to be known and attained) therefore being created by Him, all these substances follow the eternal laws ordained by Him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पदानि ) वेद्यानि प्राप्तव्यानि वा । = Three worlds which are to be known or attained. (अदाभ्यः) अविनाशित्वान्नैव केनापि हिंसितुं शक्यः = Inviolable because Imperishable or Immortal.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should clearly know that nothing can be sustained without the upholding Power of God and none can do anything without God's protection.

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