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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ ग्ना अ॑ग्न इ॒हाव॑से॒ होत्रां॑ यविष्ठ॒ भार॑तीम्। वरू॑त्रीं धि॒षणां॑ वह॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ग्नाः । अ॒ग्ने॒ । इ॒ह । अव॑से । होत्रा॑म् । य॒वि॒ष्ठ॒ । भार॑तीम् । वरू॑त्रीम् । धि॒षणा॑म् । व॒ह॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ग्ना अग्न इहावसे होत्रां यविष्ठ भारतीम्। वरूत्रीं धिषणां वह॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। ग्नाः। अग्ने। इह। अवसे। होत्राम्। यविष्ठ। भारतीम्। वरूत्रीम्। धिषणाम्। वह॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    का का सा देवपत्नीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे यविष्ठाग्ने विद्वँस्त्वमिहावसे ग्ना होत्रां भारतीं वरूत्रीं धिषणामा वह समन्तात् प्राप्नुहि॥१०॥

    पदार्थः

    (आ) क्रियायोगे (ग्नाः) पृथिव्याः। ग्ना इत्युत्तरपदनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) (अग्ने) पदार्थविद्यावेत्तर्विद्वन् (इह) शिल्पकार्य्येषु (अवसे) प्रवेशाय (होत्राम्) हुतद्रव्यगतिम् (यविष्ठ) यौति मिश्रयति विविनक्ति वा सोऽतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ। (भारतीम्) यो ययाशुभैर्गुणैर्बिभर्त्ति पृथिव्यादिस्थान् प्राणिनः स भरतस्तस्येमां भाम्। भरत आदित्यस्तस्य भा इळा। (निरु०८.१३) (वरूत्रीम्) वरितुं स्वीकर्त्तुमर्हाम्। अहोरात्राणि वै वरूत्रयः। (श०ब्रा०६.४.२.६) (धिषणाम्) धृष्णोति कार्य्येषु यया तामग्नेर्ज्वालाप्रेरितां वाचम्। धिषणेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) धृषेर्धिषच् संज्ञायाम्। (उणा०२.८०) इति क्युः प्रत्ययो धिषजादेशश्च। (वह) प्राप्नुहि। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥१०॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिरस्मिन् संसारे मनुष्यजन्म प्राप्य वेदादिद्वारा सर्वा विद्याः प्रत्यक्षीकार्य्याः। नैव कस्यचिद् द्रव्यस्य गुणकर्मस्वभावानां प्रत्यक्षीकरणेन विना विद्या सफला भवतीति वेदितव्यम्॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    वे कौन-कौन देवपत्नी हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे (यविष्ठ) पदार्थों को मिलाने वा उनमें मिलनेवाले (अग्ने) क्रियाकुशल विद्वान् ! तू (इह) शिल्पकार्य्यों में (अवसे) प्रवेश करने के लिये (ग्नाः) पृथिवी आदि पदार्थ (होत्राम्) होम किये हुए पदार्थों को बहाने (भारतीम्) सूर्य्य की प्रभा (वरूत्रीम्) स्वीकार करने योग्य दिन रात्रि और (धिषणाम्) जिससे पदार्थों को ग्रहण करते हैं, उस वाणी को (आवह) प्राप्त हो॥१०॥

    भावार्थ

    विद्वानों को इस संसार में मनुष्य जन्म पाकर वेद द्वारा सब विद्या प्रत्यक्ष करनी चाहिये, क्योंकि कोई भी विद्या पदार्थों के गुण और स्वभाव को प्रत्यक्ष किये विना सफल नहीं हो सकती॥१०॥

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    विषय

    वे कौन-कौन देवपत्नी हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे यविष्ठ अग्ने विद्वन् त्वम् इह अवसे ग्नाः होत्रां भारतीं वरूत्रीं धिषणामा वह (समन्तात् प्राप्नुहि)॥१०॥

    पदार्थ

    हे (यविष्ठ) यौति मिश्रयति विविनक्ति वा सोऽतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ=पदार्थों को मिलाने वा उनमें मिलनेवाले, (अग्ने) पदार्थविद्यावेत्तर्विद्वन्= पदार्थ विद्याको जानने वाला विद्वान्! (विद्वन्)=विद्वान्, (त्वम्)=तुम, (इह) शिल्पकार्य्येषु= शिल्पकार्य्यों में, (अवसे) प्रवेशाय=प्रवेश करने के लिये, (ग्नाः) पृथिव्याः=पृथिवी आदि पदार्थ, (होत्राम्) हुतद्रव्यगतिम्=  होम किये हुए पदार्थों को, (भारतीम्) यो ययाशुभैर्गुणैर्बिभर्त्ति पृथिव्यादिस्थान् प्राणिनः स भरतस्तस्येमां भाम्=सूर्य्य की प्रभा, (वरूत्रीम्) वरितुं स्वीकर्त्तुमर्हाम् अहोरात्राणि वै वरूत्रयः=आकर्षण सम्बन्धी स्वीकार किये जाने योग्य दिन रात्रि, (धिषणाम्) धृष्णोति कार्य्येषु यया तामग्नेर्ज्वालाप्रेरितां वाचम्=जिससे पदार्थों को ग्रहण करते हैं, उस वाणी को, (आ) क्रियायोगे=अच्छी तरह से,  {वह-(समन्तात् प्राप्नुहि)}=प्राप्त हो॥१०॥
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    विद्वानों को इस संसार में मनुष्य जन्म पाकर वेद द्वारा सब विद्या प्रत्यक्ष करनी चाहिये, क्योंकि कोई भी विद्या पदार्थों के गुण और स्वभाव को प्रत्यक्ष किये विना सफल नहीं हो सकती॥१०॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (यविष्ठ) पदार्थों को मिलाने वा उनमें मिलने वाले (अग्ने) पदार्थ विद्या को जानने वाले (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (इह) शिल्पकार्यों में (अवसे) प्रवेश करने के लिये (ग्नाः) पृथिवी आदि पदार्थ और (होत्राम्) होम किये हुए पदार्थों को (भारतीम्) सूर्य की प्रभा, (वरूत्रीम्) आकर्षण सम्बन्धी स्वीकार किये जाने योग्य दिन-रात्रि (धिषणाम्) और जिससे पदार्थों को ग्रहण करते हैं, उस वाणी को, (आ) अच्छी तरह से  (वह) प्राप्त होओ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) क्रियायोगे (ग्नाः) पृथिव्याः। ग्ना इत्युत्तरपदनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) (अग्ने) पदार्थविद्यावेत्तर्विद्वन् (इह) शिल्पकार्य्येषु (अवसे) प्रवेशाय (होत्राम्) हुतद्रव्यगतिम् (यविष्ठ) यौति मिश्रयति विविनक्ति वा सोऽतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ। (भारतीम्) यो ययाशुभैर्गुणैर्बिभर्त्ति पृथिव्यादिस्थान् प्राणिनः स भरतस्तस्येमां भाम्। भरत आदित्यस्तस्य भा इळा। (निरु०८.१३) (वरूत्रीम्) वरितुं स्वीकर्त्तुमर्हाम्। अहोरात्राणि वै वरूत्रयः। (श०ब्रा०६.४.२.६) (धिषणाम्) धृष्णोति कार्य्येषु यया तामग्नेर्ज्वालाप्रेरितां वाचम्। धिषणेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) धृषेर्धिषच् संज्ञायाम्। (उणा०२.८०) इति क्युः प्रत्ययो धिषजादेशश्च। (वह) प्राप्नुहि। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥१०॥
    विषयः- का का सा देवपत्नीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे यविष्ठाग्ने विद्वँस्त्वमिहावसे ग्ना होत्रां भारतीं वरूत्रीं धिषणामा वह समन्तात् प्राप्नुहि॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्वद्भिरस्मिन् संसारे मनुष्यजन्म प्राप्य वेदादिद्वारा सर्वा विद्याः प्रत्यक्षीकार्य्याः। नैव कस्यचिद् द्रव्यस्य गुणकर्मस्वभावानां प्रत्यक्षीकरणेन विना विद्या सफला भवतीति वेदितव्यम्॥१०॥ 

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    विषय

    होत्रा - भारती - वरूत्री' व ' धिषणा'

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - प्रगतिशील जीव ! (इह) - इस जीवन में (अवसे) - अपने रक्षण के लिए (ग्नाः) - देवपत्नियों को (आवह) - प्राप्त करा । सब इन्द्रियाँ यहाँ देव हैं , मन व बुद्धि देव हैं । इनकी शक्तियाँ ही इनकी पत्नियाँ हैं । इन्हें इस जीवन - यज्ञ में प्राप्त करना आवश्यक है । इनके होने पर ही यहाँ सुख है । इनके अभाव में यह जीवन नरक - सा बन जाता है । 

    २. हे (यविष्ठ) - युवतम ! अपने साथ अच्छाइयों को अधिक - से - अधिक जोड़नेवाले व बुराइयों को दूर करनेवाले जीव ! तू (होत्राम्) - होत्रा को , (भारतीम्) - भारती को (वरूत्रीम्) - वरुत्री को तथा (धिषणाम्) - धिष्णा को (वह) - धारण कर । [क] ' होत्रा' अग्निपत्नी है । यही यहाँ शरीर में जठराग्नि है , जिसमें हव्य पदार्थों को ही भोजन के रूप में डाला जाता है । इन सब पदार्थों को भी यह दानपूर्वक यज्ञशेष के रूप में ही सेवन करती है । परिणामतः शरीर नीरोग बना रहता है । [ख] ' भारती' [भरतस्यादित्यस्य पत्नी] । यह भरत अर्थात् भरण - पोषण करनेवाले आदित्य की पत्नी है । "प्राणाः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः" के अनुसार सूर्य अपने किरणरूप हाथों में प्राणशक्ति लेकर हमें प्राप्त होता है और सब इन्द्रियों को प्राणशक्ति से परिपूर्ण करता है और इस प्रकार इन्द्रियों को कार्यक्षम बनाता है । [ग] ' वरुत्री' यह द्वेष के निवारण की देवता मनोमय कोष को मलिन नहीं होने देती और [घ] ' धिषणा' तो है ही बुद्धि का नाम । यह विज्ञानमय कोष को धारण करती है । इस प्रकार ये देवपत्नियाँ हमारे सब कोषों को सुन्दर बनानेवाली हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - ' होत्रा - भारती - वरुत्री व धिषणा' का आवहन हमारा रक्षण करनेवाला हो । 

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    विषय

    भारती, वेदवाणी ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्रणी राजन् ! तू ( इह ) इस राष्ट्र में (अवसे) रक्षण कार्य के लिये ( ग्नाः ) गमन करने योग्य पृथिवियों, भूमियों और तीव्र गतिवाली सेनाओं को (वह) अपने वश कर, सम्भाल। और हे ( यविष्ठ ) न्यायकारिन् विवेकिन् ! हे अग्ने बलशालिन् ! शत्रुनाशक ! तू ( भारतीम् ) सबके पालन पोषण करने वाले सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष की ( वरूत्रीम् ) वरण करने योग्य, ( होत्रां ) सबको सुख देने वाली, आहुति के समान सर्व वशकारी, ( धिषणाम् ) उत्तम वाणी, आज्ञा या राजप्रजा के धर्मों के उपदेश करने वाली वेद वाणी को भी ( अवसे ) प्रजा पालन के निमित्त ( वह ) धारण कर । गृहस्थ पक्ष में—हे ( अग्ने ) विद्वन् ! तू गमन करने योग्य स्त्री को गृहस्थ धर्म पालन के लिये विवाह कर। और ( भारतीम् ) कान्तिमती, वरण योग्य या स्वयंवरा ( धिषणां ) उत्तम भोगदायिनी, ( होत्रां ) वीर्याहुति द्वारा आधान योग्य स्त्री को धारण कर । विद्वत् पक्ष में—( ग्नाः ) ज्ञान करने योग्य वेदवाणियों को हे विद्वन् ! तू धारण कर । और श्रेष्ठ स्वीकार करने योग्य सर्वोच्च वेदवाणी को धारण कर । इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी या जगात मनुष्यजन्म प्राप्त करून वेदाद्वारे विद्येचे प्रत्यक्ष संप्रयोजन करावे. कारण कोणतीही क्रिया पदार्थांचे गुण व स्वभाव यांना प्रत्यक्ष केल्याखेरीज सफल होऊ शकत नाही. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light, life and learning, youngest and most brilliant creative power, bring home to us here the beauties of the earth, fragrance of oblations, life- giving sunlight and language of learning, soothing nights and days, and the fiery speech of heaven and earth for our protection and progress.

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    Subject of the mantra

    Who are those devapatnī (powers of deities), this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (yaviṣṭha)=mixing the substances and getting mixed with them, (agne)=acquainted with material science (vidvan)=scholar, (tvam)=you, (iha)=in the craft science, (avase)=for entrance, (gnāḥ)=earth etc. substances, [aur]=and, (hotrām)=substances offered in oblation, (bhāratīm)=radiance of sun, (varūtrīm)=related to attraction, acceptable day and night, (dhiṣaṇām) =through which substances are accepted, to that speech, (ā)=well, (vaha)=get obtained.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! Mixing substances and getting mixed with them and acquainted with material science. For entrance in craft science, earth etc. substances and substances offered in oblation; radiance of Sun; related to attraction acceptable day and night, through which the substances are accepted, to that speech you get obtained well.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Scholars after taking human birth in this world should perceive all knowledge through Vedas, because no knowledge can be successful without perceiving the properties and nature of the objects.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    which are those devapatnis (powers) is taught in the next Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O scientist, expert in mixing and analyzing various articles, obtain and make proper use of the earth, the oblations put in the fire, the sun-shine, day and night and the enlightened and effective speech for the protection of all in the activities of arts, crafts and industries.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ग्नाः) पृथिव्यः ग्ना इत्युत्तरपदनामसु पठितम् (निघ० ३.१६ ) = The earth (अग्ने) पदार्थविद्यावेतर्विद्वन् = O scientist. (होत्राम्) हुतद्रव्यगतिम् = the result of the oblations. (यविष्ठ) याति मित्रयति विविनक्ति वा सोऽतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ = Expert in mixing and analyzing various articles. (भारतीम्) शुभैर्गुणर्बिभर्ति पृथिव्यादिस्थानप्राणिनः स भरतः तस्य इमां भाम् भरत आदित्यः तस्य भाइला (निरुक्ते ८.२४) = The sun shine. (वरूत्रीम्) वरितुं स्वीकर्तुमर्हाम्। अहोरात्राणि वै वस्त्रयः (शत० ६.४.२.६ ) = Day and night. (धिषणाम् ) घृष्णोति कार्येषु यया ताम् अग्नेः ज्वालाप्रेरितां वाचम् धिषणेति वाङ्नाम (निघ० १.११ ) धृषेधिंषद् संज्ञायाम् (उणादि २.८० ) इतिक्युः प्रत्ययो धिषजादेशश्च । = Enlightened and effective speech.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The learned persons should visualize all sciences in this world, through the study of the Vedas and experiments having obtained from human life. Without the distinct perception of the attributes and functions of the various objects, the knowledge does not bear fruit. This should always be borne in mind by all.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted अग्ने used in this Mantra as पदार्थविद्यावेत्तर्विद्वन् The word अग्नि is derived from अगि-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च so it means a learned person expert in various sciences.

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