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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 94 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 13
दे॒वो दे॒वाना॑मसि मि॒त्रो अद्भु॑तो॒ वसु॒र्वसू॑नामसि॒ चारु॑रध्व॒रे। शर्म॑न्त्स्याम॒ तव॑ स॒प्रथ॑स्त॒मेऽग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वः । दे॒वाना॑म् । अ॒सि॒ । मि॒त्रः । अद्भु॑तः । वसुः॑ । वसू॑नाम् । अ॒सि॒ । चारुः॑ । अ॒ध्व॒रे । शर्म॑न् । स्या॒म॒ । तव॑ । स॒प्रथः॑ऽतमे । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवो देवानामसि मित्रो अद्भुतो वसुर्वसूनामसि चारुरध्वरे। शर्मन्त्स्याम तव सप्रथस्तमेऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥
स्वर रहित पद पाठदेवः। देवानाम्। असि। मित्रः। अद्भुतः। वसुः। वसूनाम्। असि। चारुः। अध्वरे। शर्मन्। स्याम। तव। सप्रथःऽतमे। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
पदार्थ -
पदार्थ = हे ( अग्ने ) = ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! ( देवानाम् देव: ) = आप विद्वानों के भी परम विद्वान् हो ( अद्भुतः मित्रः असि ) = और उन विद्वानों के आश्चर्य आनन्द देनेवाले मित्र हो । ( वसूनाम् वसुः असि ) = वसुओं के वसु हो ( अध्वरे ) = यज्ञ में ( चारु: ) = अत्यन्त शोभायमान हो ( तव ) = आपकी ( सप्रथस्तमे ) = अति विस्तीर्ण । ( शर्मन् ) = सुखदायक ( सख्ये ) = मित्रता में ( वयम् ) = हम ( स्याम ) = स्थिर रहें और ( मा रिषामा ) = पीड़ित न होवें ।
भावार्थ -
भावार्थ = हे सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी प्रभो! आप विद्वान् पुरुषों के महाविद्वान् और आश्चर्यकारक सुखदायक सच्चे मित्र हो । लाखों प्राणियों के आधाररूप जो पृथिवी आदि वसु हैं, उन वसुओं के अधिष्ठानरूप आप वसु हो । भगवन् ! आप ज्ञान यज्ञादि उत्तम कर्मों में शोभायमान, धार्मिक और ज्ञानी पुरुषों को शोभा देनेवाले हो। आपकी मित्रता सदा आनन्ददायक है। आपकी मित्रता में स्थिर रहते हुए, हम कभी दुःखी नहीं हो सकते । कृपानिधे ! हम यही चाहते हैं कि, हम आपको ही सच्चा सुखदायक मित्र जानकर आपकी प्रेम भक्ति में लगे रहें।
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