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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒तो घा॒ ते पु॑रु॒ष्या॒३॒॑ इदा॑स॒न्येषां॒ पूर्वे॑षा॒मशृ॑णो॒र्ऋषी॑णाम्। अधा॒हं त्वा॑ मघवञ्जोहवीमि॒ त्वं न॑ इन्द्रासि॒ प्रम॑तिः पि॒तेव॑ ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒तो इति॑ । घ॒ । ते । पु॒रु॒ष्याः॑ । इत् । आ॒स॒न् । येषा॑म् । पूर्वे॑षाम् । अ॒शृ॒णोः॒ । ऋषी॑णाम् । अध॑ । अ॒हम् । त्वा॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । जो॒ह॒वी॒मि॒ । त्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । प्रऽम॑तिः । पि॒ताऽइ॑व ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतो घा ते पुरुष्या३ इदासन्येषां पूर्वेषामशृणोर्ऋषीणाम्। अधाहं त्वा मघवञ्जोहवीमि त्वं न इन्द्रासि प्रमतिः पितेव ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उतो इति। घ। ते। पुरुष्याः। इत्। आसन्। येषाम्। पूर्वेषाम्। अशृणोः। ऋषीणाम्। अध। अहम्। त्वा। मघऽवन्। जोहवीमि। त्वम्। नः। इन्द्र। असि। प्रऽमतिः। पिताऽइव ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    पदार्थ = हे ( इन्द्र ) = परमात्मन् ! ( येषाम् पूर्वेषाम् ऋषीणाम् ) = जिन पूर्व कल्पों के ऋषियों की प्रार्थनाओं को ( अशृणोः ) = आप ने सुना ( ते घा उत ) = वे भी तो ( पुरुषाः इत् आसन् ) = मनुष्य ही थे । हे ( मघवन् ) = धनवान् ! ( अध:अहम् ) = अब  मै ( त्वा जोहवीमि ) = आपको बारम्बार पुकारता हूँ ( त्वम् नः ) = आप हमारे ( पिता इव ) = पिता की नाईं ( प्रमतिः असि ) = श्रेष्ठ मति देनेवाले हैं। 

     

    भावार्थ -

    भावार्थ = हे परमेश्वर ! आप पूर्व कल्पों के ऋषि महात्माओं की प्रार्थनाओं को बड़े प्रेम से सुनते आये हैं। भगवन् ! वे भी तो मनुष्य ही थे । आपकी कृपा से ही तो वे ऋषि महात्मा बन गए । अब भी जिस पर आपकी कृपा हो, वह ऋषि महात्मा बन सकता है। इसलिए हम आपकी बड़े प्रेम से बारम्बार प्रार्थना उपासना और स्तुति करते हैं, आप ही पिता की नाईं दयालु हो कर हमें श्रेष्ठ मति प्रदान करें, जिससे इस लोक और परलोक में सदा सुखी हों।

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